________________ देवोंका भवधारणीय वैक्रिय शरीरका प्रमाण ] गाथा-१३८ / 302 इस प्रकार यहाँ संक्षेपमें लोक स्वरूप बताया / तदुपरांत सविस्तर स्वरूप तथा खण्डुक विचारणा सूचि-प्रतर-घन-रज्जु आदिका स्वरूप 28 ग्रन्थांतरसे (चित्रमेंसे भी ) देखे / [137] Sciencamisacancarcancer: 3 // तृतीय अवगाहना द्वार // अवतरण-चारों प्रकारके देवोंका दूसरा भवन द्वार तथा तदाश्रयी अन्य वर्णन बताकर उन्हीं ही देवोंका तृतीय 'अवगाहना' द्वार शुरू करते हैं, तथा उसमें प्रासंगिक अन्य वर्णन भी करेंगे / इस गाथामें तो उनके भवधारणीय वैक्रियशरीरका प्रमाण कहाँ कितना होता है ? यह भी बताते है / भवण-वण-जोइ-सोहम्मीसाणे सत्तहत्थ तणुमाणं / दु दु दु चउक्के गेवि-ज्जऽणुत्तरे हाणि इविक्के // 138 / / गाथार्थ-भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा वैमानिक निकायमें प्रथम-सौधर्म-ईशान इन दोनों देवलोकके देवोंका देहमान सात हाथका, उसके बाद तीनबार दो-दो देवलोकके जोड़में, तदनन्तर कल्पचतुष्कमें, बादमें गैवेयकमें और अनुत्तरमें अनुक्रमसे एक-एक हाथकी हानि करे / // 138 // विशेषार्थ-विशेषमें सनत्कुमार-माहेन्द्र देवलोकमें छः हाथका, ब्रह्म-लांतक दोनों कल्पमें पाँच हस्तका, शुक्र-सहस्त्रारमें चार हस्तका, आनत-प्राणत-आरण-अच्युत इन चारों कल्पमें तीन हाथका, नौ ग्रैवेयकमें दो हाथ और अनुत्तरमें एक २८°हाथका मात्र शरीर होता है / ज्यों ज्यों ऊपर बढ़ते है त्यों त्यों देहमान, नूतन कर्मबन्धन, कषाय भावकी परिणति इत्यादि घटता जाता है / जबकि आयुष्यमान, निर्मलता, पौद्गलिक सुख इत्यादि क्रमशः बढ़ता जाता है। [138] 289. प्रथमावृत्तिमें तैयार होने पर भी जिसे देना रोक दिया था उस चौदह राजलोक, नवलोकांतिक, तमस्काय इत्यादिका स्वरूप परिशिष्टके रूपमें भी इस आवृत्तिमें देनेका विचार है / 20.0. यह मान उत्कृष्ट आयुष्यवाले ( 33 सागरोपम ) सर्वार्थसिद्ध देवोंके लिए है / परन्तु जिनकी विजया दिन पर जघन्य 31 सागरोपमकी स्थिति है उनके लिए दो हाथोंका और 32 सागरोपमकी मध्यम स्थिति है उनका शरीर एक हाथ और हाथके ग्यारहवां भाग जितना होता है / इस तरह. हरेक कल्प तथा ग्रैवेयकमें समझना है / सुगमताके लिए गाथा १४२का यन्त्र देखिए /