________________ .219. .. पर्याप्ति संबंधी विशेष स्वरुप * पर्याप्त लब्धि पर्याप्त लब्धि अपर्याप्त करण अपर्याप्त करण अपर्याप्त करण पर्याप्त पर्याप्तिका प्रारंभ समकाल पर और समाप्ति अनुक्रम पर जीव उत्पत्ति स्थानमें आनेके बाद स्वयोग्य सर्व पर्याप्तिका प्रारंभ [एक साथ] समकाल पर ही करने लगता है, परंतु उसकी समाप्ति अनुक्रमसे करता है, क्योंकि तैजस, कार्मण शरीरके सहकारसे आत्माने उत्पत्ति स्थानमें प्रथम समय पर शुक्र, रुधिरादि जो जो पुद्गल ग्रहण किये, उनके द्वारा ग्रहण किये और अन्य ग्रहण किए जाते और अबसे ग्रहण होनेवाले पुद्गलोंको भी, खलरसपनसे अलग करनेकी शक्ति प्राप्त हो गई। अतः आहार पर्याप्तिकी परिसमाप्ति हुई सही, परन्तु प्रथम ग्रहण किए गए उन पुद्गलोंने शरीर आदिकी रचना कुछ अंशमें प्राप्त की परन्तु संपूर्ण नहीं, अर्थात् प्रथम समयगृहीत पुद्गलोंमेंसे कतिपय खलपनसे, कतिपय रसपनसे [सात धातुपनसे ], कतिपय इन्द्रियपनसे, कतिपय श्वास उच्छ्वास कार्यमें, कतिपय भाषाके कार्यमें और मनःकार्यमें सहायकपनसे परिणत हुए हैं और उतने अल्प अल्प पुद्गलों द्वारा आत्माको उस उस कार्यमें कुछ अंशमें शक्ति प्राप्त हुई है उस कारणसे सर्व पर्याप्तियाँ समकाल पर शुरु होती हैं ऐसा कहा जाता है, लेकिन हरेककी समाप्ति तो अनुक्रमसे ही होती है। पर्याप्तियाँ क्रमशः समाप्त क्यों होती हैं ? . छहों पर्याप्तिओंका समकाल पर प्रारंभ होने पर भी अनुक्रमसे पूर्ण होनेका कारण आहारादिक पर्याप्तियोंके पुद्गल अनुक्रमसे सूक्ष्म-सूक्ष्मतर परिणामवाले रचने पड़ते हैं तब, अर्थात् पहली आहार पर्याप्ति स्थूल, दूसरी शरीर पर्याप्ति उससे सूक्ष्म, इस तरह यावत् छठी पर्याप्ति अधिक अधिक पुद्गलोपचयसे सूक्ष्मतर होता है और अधिक अधिक पुद्गल प्राप्त करनेमें काल भी अधिक लगता है / . उदाहरणके तौर पर-जिस तरह सेर रुई कातनेको छहों कातनेवाली समकाल पर कातने लगे, तो मी मोटा सूत कातनेवाली अंटा जल्दी पूर्ण करती है और उससे सूक्ष्म सूक्ष्मतर कातनेवाली क्रमशः अंटा विलंबसे पूर्ण करती है, वैसा पर्याप्तियोंकी समाप्तिमें समझना है।