________________ * नारकों को अवधिज्ञान * यति-अर्थात् सर्वविरति (सर्वथा गृह-संसार ममता पापादिक के त्यागरूप) चारित्र को ग्रहण करनेवाले जीव पहले पांच नरक में से आए होते हैं / .. दिसि-अर्थात् देश से विरति (सर्वथा त्याग नहीं वह) को अर्थात् आंशिक त्याग को धारण करनेवाले प्रथम के छ हों नरक के जीव होते हैं, क्यों कि छठे नरक में से आये जीव अनन्तर भव में क्वचित् मनुष्य रूप में उन्पन्न होते हैं / अगर वहाँ अतिमलिन अध्यवसाय होते होने से अशुभ कर्मबंधन अधिक होता है जिस से यकायक मनुष्य भवप्राप्ति योग्य अध्यवसाय आते नहीं हैं तो भी कदाचित् किसी किसी नरकात्मा को प्राप्त शुभ परिणामों आ जाता है और मनुष्यायुष्य का बंध करता है / लेकिन बहुलता से तो तिर्यचरूप में ही उत्पन्न होता है / तथापि तथाविध विशुद्धि से मनुष्य हों तो मी तथाविध पुण्याई की विशुद्धि के अभाव में सर्वविरतिपन तो पा नहीं सकते परंतु देशविरतिपन को. पा सकते हैं / और सम्यक्त्व तो सातों नरकों में से आए जीवों को प्राप्त हो सकता है / परंतु सातवें में से आए हुये को देशविरतिपना प्राप्त नहीं हो सकता साथ ही वे मनुष्यत्व न पाकर निश्चितरूप से तिर्यच योनि में ही उत्पन्न होते हैं / अगर वे गतभव में नरकायुष्य वांधा जाने से यहाँ नरक में उत्पन्न हुए होते हैं, परंतु गतभव में ही किए गए पुण्य के दूसरे संचय से, नरक में से निकलकर वे जीव उक्त लब्धियाँ प्राप्त करते हैं, परंतु जिन्हों ने पूर्वभव में कुछ भी महान सुकृत्यो नहीं किये हैं, तप-त्याग-संयम स्वरूप सद्वर्तन का सेवन नहीं किया हैं / भगवद्भजन आदि मंगल प्रवृत्तियाँ नहीं की हैं केवल भयंकर पापाचरण का सेवन करके नरक में उत्पन्न हुए होते हैं वे तो अनन्तर भव में उक्त लब्धियों को पा ही नहीं सकते / साथ ही जो अरिहा-तीर्थकर होते हैं वे भी तीर्थकर भव की अपेक्षा से पूर्व के तीसरे भव में, विंशति स्थानक में बताए उत्तम स्थान पदों की सर्वोत्तम कोटि की आराधना द्वारा तीर्थकरनामकर्म बांधने से अगाऊ अगर उन्हें वैसी प्रवृत्ति द्वारा उनके नरकायुष्य का बंध कर दिया हो तो उन्हें नरकगति में अवतार लेना पड़ता है / और वहाँ का काल पूर्ण करके अनन्तर भव में ही (श्रेणिकादिक की तरह ) तीर्थकरनामकर्मकी की निकाचना, तीसरे अथवा उनके अंतिम मनुष्य भव में विपाकोदयरूप में उदयमें आता है / यह नियम न समझना / लेकिन जो बद्धनरकायुषी होकर फिर तीर्थकर