________________ श्री बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी भाषांतर . नामकर्म वांधते हों उनके लिए ही यह समझना / परंतु अबद्धायुषी तो देव, मनुष्यगति में ही जाते हैं / [ 258 ] अवतरण-अब आठवें द्वार में नारकों के अवधिज्ञान विषयक क्षेत्रमान के बारे में कहते हैं। रयणाए ओही गाउअ, चत्तारट्ठ गुरुलहु कमेणं / पइ पुढवी गाउअद्धं, हायइ जा सत्तमि इगद्धं // 259 / / गाथार्थ--रत्नप्रभा में [ उत्कृष्ट से ] अवधिज्ञानका क्षेत्र चार कोस का और [ जघन्य से ] साढे तीन कोस का होता है, तत्पश्चात् प्रत्येक पृथ्वी के दोनों मान में आधा कोस हीन करते जाइए, यावत् सातवें में उत्कृष्ट से एक कोस और जघन्य से आधे कोस का रहे // 259 // विशेषार्थ-अवधिज्ञान शब्द का अर्थ और उसकी व्याख्या देवद्वार प्रसंग में कही गई है। प्रथम रत्नप्रभा के नारकों का अवधिक्षेत्र उत्कृष्ट से मात्र चार कोस का और जघन्य से साढे तीन कोस का, दूसरे नरक के नारकों का उत्कृष्ट से 3 // कोस का और जघन्य से 3 कोस का, चौथे में उ० 3 कोस और ज० 2 // कोस का, पांचवें में उ० से 2 कोस और ज० से 1 // कोस, छठे में उ० से 1 // कोस और ज० से 1 कोस, सातवें में उत्कृष्ट से अवधि-दृश्यक्षेत्र 1 कोस और ज० से 0|| कोस का होता है / नारक जीवों को यह 'अवधिज्ञान' कहा उस में मिथ्यादृष्टि नारकों को तो वह ज्ञान विभंग-विपरीतरूप से होता होने से उनका वह ज्ञान उन्हें देखने में दुःखदायी है, क्योंकि इस से वे अपने को दुःख देनेवाले परमाधार्मिक जीवों को तथा अशुभ पुद्गलों को प्रथम से ही समीप आते हुए देखा करते हैं, अतः वे बेचारे लगातार चिंता और भय के बीच भारी कदर्थना पा रहे हैं। [ 259 ] इति नवमगतिद्वारम् /