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________________ 340 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 161-162 सेवा से आर्त = पीड़ित / किसी सामान्य कारण मात्रसे ही इस हाड़का गठन (रचना) टूट पड़ता है जिसे हड्डी टूटना या उतर जाना कहते हैं और तैलादिक मर्दन आदिके सेवनसे फिरसे हड्डी मूल स्थानमें बैठ (गड्ढे में ) जाती है / अतः दर्दसे पीड़ित होते हुए भी सेवा मिलनेसे स्वस्थानको जो अस्थिरचना प्राप्त होती है वह / वर्तमानके जीवोंमें हमें यह अन्तिम संघयण मिलता है। | 159-160] अवतरण-उन छः संघयणोंमेंसे किस जीवके कितने संघयण हों ? उसे बताते हैं / छ गम्भतिरिनराण, समुच्छिमपणिदिविगल छेवट्ठ / . सुरनेरइया एगि-दिया य सम्वे असंघयणा / / 161 / / गाथार्थ--विशेणर्थवत् / // 161 // विशेषार्थ -गर्भधारण द्वारा उत्पन्न होते (जनमते ) गर्भजतिथंच तथा मनुष्य आदिमें भिन्न भिन्न जीवोंकी अपेक्षासे छः संघयण मिल सकते हैं / संमूर्छिम पंचेन्द्रिय ३१२मनुष्य तथा तिर्यंच और विकलेन्द्रिय ये जो कि दोइन्द्रिय, त्रीइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय होते हैं, इन्हें एक ही अन्तिम छेवटुं-सेवात संघयण होते हैं / देव-नारक और एकेन्द्रिय ये सभी संघयणरहित होते हैं अर्थात् उनमें अस्थिरचनात्मकपन होती नहीं है। लेकिन देवोंकी चक्रवादिसे भी अधिक महाशक्तिशाली होनेके कारण उन्हें औपचारिक वऋषभनाराच संघयणवाले समझे जाते हैं, क्योंकि वे उत्कृष्ट शक्तिविषयक समानता जरूर रखते हैं। इस तरह एकेन्द्रियको अपनी अल्पशक्तिके कारण औपचारिक सेवा संघयणवाले मी माना गया है, क्योंकि अल्पशक्तिका विषय अल्पबलवाले सेवात संघयणके साथ घटा सकते हैं / [ 161] // किस जीवके कितने संघयण हों ? उसका यन्त्र // गर्भज मनुष्य गर्भज तिर्यच विकलेन्द्रिय देवताको सेवात संघयण नहीं है स. पं. तिथंच स. पं. मनुष्य सेवात | नारकीको एकेन्द्रियको अवतरण-अब संघयणाश्रयी ऊर्ध्वगतिका नियमन बताते हैं। छेवटेण उ गम्मइ, चउरो जा कप्प कीलिआईस / घउसु दुदुकप्पवुड्ढी, पढमेणं जाव सिद्धीवि / / 162 // .. 312. मतांतरसे कोई छः भी घटाता है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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