________________ छः संघयणका वर्णन] गाथा 159-160 [330 वहू भाग 30 “संधिसे अलग होता है / अर्थात् यह अत्यंत ही मजबूतसे मजबूत हड्डियोंकी गठन-रचना है। 2. ऋषभनाराच-इस संघयणमें सिर्फ वज्र शब्द नहीं है, अतः मर्कटबन्ध तथा उसके ऊपर पट्टा-ये दोनों हों लेकिन एक ३०“कीलि न हो वह / 3. नाराच-इसमें सिर्फ मर्कटबन्ध अकेला ही रहता है / [अनुक्रमसे एक-एक गठन घटता जाता है और इससे संघयणमें उत्तरोत्तर बलहानि होती समझे। ____4. अर्धनाराच-इसमें मर्कटबन्ध होता है लेकिन अर्ध विशेषणसे आधा मर्कटबन्ध अर्थात् एक हड्डीका छोर सीधा और कुन्द होता है। उस पर दूसरा सामनेकी हड्डीका छोर, इसी सीधी हड्डी पर चक्कर काटता हुआ वृत्ताकारमें लगाया हुआ रहता है, इसी चक्कर काटती हुई हड्डीके दूसरे भाग पर हड्डीकी कीलिका आरपार निकली हुी होती है / 5. कीलिका-दोनों अस्थि-हड्डियाँ बिना चक्कर३१° लगाए (बिना वृत्ताकार ) आपसमें सीधे रूपमें जुड़े हुए होते हैं और दोनों हड्डियोंको बींधकर आरपार हड्डीकी कीलिका निकली हो वह। 6. छेवढं-यह संघयण अंतिम कोटिका है / इसके हड्डीकी संधिके स्थान पर आमनेसामने जो छोर हैं उनमेंसे एक हड्डीके गड्ढे में दूसरी हड्डीका कुंठित छोर थोड़ा सा अंदर स्पर्श करके रहा हुआ होता है। इसे भाषामें छेदस्पृष्ट ( उसी हाड़के अन्तिम भागसे स्पर्शित ) कहा जाता है। उसी तरह इसे 311 सेवार्त्तसे भी पहचाना जाता है। अर्थात् 308. जिस तरह एक सुतार दो लकड़ेको एक दूसरे पर रखकर जोड़े तो भी वे हिल पाते हैं / परन्तु उसे देढ करके फाँस लगाकर बिठाए, बादमें लोहेकी पट्टीसे चारो ओरसे जकड़कर, बादमें पट्टी और फाँसको भेद सके वैसा मजबूत चार इंच बड़ा देसी कीला किसी भी प्रकार अलग न हो उसी प्रकार लगाए, उससे भी अधिक मजबूत इस रचना-गठनको समझे / 309. कोई इसे 'वज्रनाराच' भी कहता है। अर्थात् कीलिका सही लेकिन पट्टा नहीं। इसे दूसरा संघयण कहते हैं। ____310. बिना आँटी लगाए अर्थात् दो लकड़े एक दूसरेपर रखकर भले ही उसमें कीलिका लगायी हो, फिर भी किसी भी वक्तपर वे लकड़े शायद हिल जानेका या शिथिल हो जानेका प्रसंग हो सकता है। ___311. अथवा बुढ़ापेमें तैरकी सेवा ( मालिस या मर्दन ) बार-बार मागते रहते हैं, घड़ीमें घुटने जकड जाते हैं, तो घड़ीमें कलाई दुःखने लगती हैं, तो घड़ीमें दूसरे जोड परन्तु तैल-मालिस करते ही तुरन्त वे फिरसे काम देने लगते हैं / दिगम्बरीय ग्रन्थोंमें इस संघयणका नामभेद है /