________________ * इस ग्रन्थका कर्ता कौन और संग्रहणीका गाथामान कितना 1 * * 261 * अर्थात् प्रथम टीका जो रची गई उस टीकामें साक्षीभूत या उपयोगी जो गाथाएँ दी थीं उनमेंसे और अन्यान्य प्रकरणादिक ग्रन्थोंमेंसे कतिपय गाथाओंको उठाकर अभ्यासकोंने श्री जिनभद्रीया संक्षिप्त संग्रहणीके साथ जोड़ना शुरु किया और फिर कंठस्थ करने लगे, फिर स्वाध्यायके लिए कागजके पन्नों पर लिखी जाने लगी, परिणाम स्वरूप उन लिखित प्रतियोंमें लगभग चारसौ और पांचसौ दोनों मानवाली संग्रहणियोंका जन्म हुआ, और गाथामानवाली बताई। उस अरसेके सार्वभौम टीकाकार श्री मलयगिरिजी. जो जिनभद्रीया संग्रहणीके टीकाकार हैं, उनकी मुद्रित की गई, पं. श्री दानविजयजी संशोधित प्रतिमें जो टीका की है वह 367 गाथा की है। लेकिन उसी प्रतिमें टीका पूरी होने पर तुरंत ही मूल गाथाएँ छापी हैं, ये 353 गाथाएँ छापी हैं और टीका 367 की है फिर भी मूल 353 क्यों छापी ? इसके समाधानके रूपमें संस्कृतमें टिप्पण दिया है। उसमें बताया है कि " कुछ प्रतियाँ हमें 500, 575, 400 से कुछ अधिक इस तरह भिन्नभिन्न प्रमाणवाली मिलीं इससे लगा कि प्रक्षिप्तताका कोई नियम ही नहीं रहा, अतः मूल कर्ताने स्वयं ही 353 गाथाएँ बनाई थीं और 14 गाथाएँ (353+14-367) तो प्रक्षिप्त थीं। उन्हें हमने मूल संग्रहमें न छापी" लेकिन सवाल यह है कि टिप्पणकार पन्यासजीने किस आधार पर यह निश्चित किया ? लेकिन मान लें कि उन्होंने किसी प्रबल आधार पर लिखा होगा, तो फिर दूसरा प्रश्न यह होता है कि श्री टीकाकार श्री देवभद्रजीने लगभग 300 गाथाएँ अर्थात् अभी मुद्रित हुई 275 गाथाओंका उल्लेख क्यों किया होगा ? साथ ही दूसरी बात यह भी है कि प्रक्षेप गाथासे तो प्रमाण श्री देवभद्रजीके कहने अनुसार तो 375 से 490 तकका है, तो उतना कहना चाहिए। इसके बदले पं. श्री दानविजयजीने चौदह गाथाओंको ही प्रक्षिप्त क्यों कहीं ? क्या मलयगिरिजीने टीकामें 14 गाथाओंको ही प्रक्षिप्त रूपमें मानी होगी 1 ( मैं यह निश्चित नहीं कर सका / ) दोनों संग्रहणीकारोंकी मुद्रित गाथाएँ भिन्नभिन्न संख्यावाली मिलती हैं / जिसके कारण एक बडी अराजकता संग्रहणी ग्रन्थक्षेत्रमें सर्जित हुई है। इस विषयक चौकस निर्णय लेनेके लिए विशिष्ट प्रयत्न अपेक्षित है। शक्य होगा तो प्रस्तावनामें परामर्श करूँगा। 566. मूलटीका (आद्य) किसकी थी ? तो श्री हरिभद्रसूरिजीकी, उसका प्रमाण क्या ? तो श्री मलयगिरिवरने जिनभद्रीया (367 गाथाकी) संग्रहणीकी स्वकृतटीकामें और श्री देवभद्रसूरिजीने श्री चन्द्रीयाकी टीकामें किये हुए उल्लेख / 1. अथेयं प्रक्षेपगाथेति कथमवसीयते ? उच्यते, मूल्टीकाकारेण हरिभद्रसूरिणा लेशतोऽअस्या असूचनात् ! [गा० 73 टीका ] इसके सिवाय श्री हरिभद्रसूरिजीका नामोल्लेख 6, 65, 102, 153, 156, 186, 191, 325 इन गाथाओंकी टीकामें भी किया है। 2. तथा च मूल टीकायां हरिभद्रसूरिः / [गा० 269 टीका] 567. 'मलटीकागता भिरन्यान्याभिश्च प्रक्षेपगाथाभिवृद्धिं नीयमानाऽधुना यावत् किञ्चिन्न्यून चतुःशतीमाना पञ्चशतीमाना च गुरुतरा संजाता।' ग्रन्थका नाम जो “संग्रहणी' है, उस शब्दका अर्थ इतना ही कि जिसमें संग्रह किया गया हो वह -- संग्रहणी'। यह अर्थ सदाके लिए निश्चित होनेसे श्री चन्द्रमहर्षिके समयमें, गाथामानमें जितनी अराजकता न थी उससे अनेक गुनी बीसवीं सदी तकमें अभ्यासी वर्गने कर डाली है। जिन्हें जिन्हें आगमोंमें या टीकाओंमें जो जो गाथाएँ अपनी अपनी दृष्टिसे कण्ठ करने योग्य या जानने योग्य लगी, उन्होंने अपनी प्रियगाथाओंको मलकृतिमें जोडकर पढना शुरु कर दिया, फिर वे लिखी जाने लगीं। विद्यार्थियोंके मनको ऐसा भी हुआ होगा कि यह तो 'संग्रह' कृत है अतः यथेष्ट जोड किया जा सकता है। परिणाम स्वरूप हमें तरह तरहसे मानवाली