________________ .1900 * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . अपेक्षासे ] वक्रागतिके दूसरे समयमें [ वस्तुतः प्रथम समय है ] परभवायुष्यका उदय है ऐसा जो कहते हैं उसे वे व्यवहारनयसे-स्थूलदृष्टि से कहते हैं, परंतु उसे वास्तविक सूक्ष्मदृष्टिस्वरूप निश्चयनयसे नहीं कहते / . निश्चयनयसे सोंचे तो वक्राके प्रथम समय पर ही परभवायुप्यका उदय कहा जाए .. क्योंकि चालू जन्मके अन्तिम समयको कहीं वक्राका प्रथम समय नहीं कहा जाएगा / [ बाकी व्यवहार निश्चयवाले दोनोंका परभवायुष्यका उदय कथनका समय तो जो है वही आता है / विवक्षा मात्र ही समझनी है / ] - आत्मा अन्तसमयमें गतिके सम्मुख बनती है / अभी पूर्वभवके अन्तसमयमें रही होनेसे वहाँ शरीरके प्रदेशोंका संघात (ग्रहण) परिशाट (त्याग) चालू है, जिसके कारण यह अन्त समय निश्चयसे अभी पूर्वभवका ही है लेकिन परभवका नहीं, क्योंकि अभी पूर्वभवका शरीर अन्तसमय पर भी विद्यमान है, इस शरीरका सर्वथा त्याग न हो तब तक अपांतरालगतिका उदय ही कहाँसे होनेवाला था ! अतः देहत्याग तो प्रस्तुत भवके अन्तिम समयान्त पर और आगामी भवके ( या वक्राके ) स्पष्ट प्रथम समयमें ही होता है। साथ ही पूर्वशरीरका, पुद्गलोंका संघात या परिशाट नहीं होता, उसी समय आयुप्यके साथ गति मी उदयमें आती है, अतः परभवके आयुष्यका उदय वक्रागतिमें निश्चयनयसे आद्यक्षणमें ही गिना जाता है / [330] अवतरण-गत गाथामें वक्रामें आयुष्योदय कहा लेकिन आहार समय नहीं कहा था अतः इस गाथामें अधिक समयवाली वक्रागतिमें जीव कितना समय आहारी या अनाहारी हो ! ये दोनों बातें नयाश्रयी कहते हैं / इगदुतिचउवक्कासु, दुगाइसमएसु परभवाहारो। दुगवक्काइसु समया, इग दो तिनि अ अणाहारा // 331 // गाथार्थ-एक, दो, तीन और चार समयकी वक्रागतिमें द्वितीयादि समयोंमें परभवका आहार जानें, अर्थात् अनुक्रमसे द्विवक्रागतिमें एक समय, त्रिवक्रागतिमें दो समय और चतुर्वक्रागतिमें तीन समय अनाहारक होते हैं / // 331 // विशेषार्थ-गत गाथामें वक्राका स्वरुप कहा था। अब इस गाथामें वक्रागतिमें ही व्यवहार और निश्चय दोनों नय दृष्टिसे आहार और अनाहारकका समय कहते हैं। व्यवहारनयकी दृष्टिसे हरेक वक्रामें जीव पहले समय और अंतिम समयमें आहारक ही होता है। तात्पर्य यह निकला कि, दो से अधिक समयवाली वक्रामें ही यथायोग्य अनाहारपन मिलता है। यहाँ प्रथम एक वक्राका विचार करें तो वह दो ही समयकी HUDHHHEL