________________ 136 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 62-63 भी मेरुके व्यासमें (मोटाई में ) १५७खास परिवर्तन नहीं होता है। अतः वहाँ मेरुपर्वतकी एक दिशाके सम्मुख 1121 योजन दूर तारामण्डलका परिभ्रमण है वैसे ही उसके प्रतिपक्षी (विरुद्ध) दिशामें भी मेरुसे 1121 योजन दूर तारामण्डल परिभ्रमण करता है। दोनों बाजूका 1121 योजन अंतर और बीचके मेरुकी 10000 योजनकी चौड़ाई इन तीनोंका जोड़ करें अर्थात् पूर्वदिशाके तारोंके स्थानसे पश्चिमदिशाके सम्मुख 1121 योजन दूर जाने पर मेरु आता है, मेरुके पुनः 10000 योजन पार करें, तदनन्तर 1121 योजन दूसरे भाग पर (पश्चिमदिशाकी तरफ) जाएँ तब तारोंके विमान आते हैं। इस तरह मेरुका और मेरुकी दोनों ओरके अंतर प्रमाणका जोड़ करनेसे 12242 योजन प्रमाण अंतर मेरुकी अपेक्षासे ( व्याघातभावी) एक तारेसे दूसरे तारेके बीचका जाने / 158 [ 62] अवतरण-निषध और नीलवंत पर्वत व्याघाताश्रयी अंतरको कहते हैं / निसढो य नीलवंतो, चत्तारि सय उच्च पंचसय कूडा / अद्धं उवरिं रिक्खा, चरंति उभयऽट्ठबाहाए // 63 // [प्र० गा० सं० 14]. गाथार्थ-निषध और नीलवन्त पर्वत भूमिसे चारसौ योजन ऊँचे हैं और उनके ऊपर पांचसौ योजन ऊँचे (नौ) नव-नव शिखर-कूट हैं / ये कूट ऊपरके भागमें ढाईसौ (250) योजन चौडे हैं और उन कूटोंसे आठ-आठ योजनकी अबाधा पर नक्षत्र, तारे आदि परिभ्रमण करते हैं। / / 63 // निषध-नीलवन्त आश्रयी व्याघात निर्व्याघात अंतर विशेषार्थ-जम्बूद्वीपके मध्यमें रहे महाविदेहक्षेत्रकी एक भाग पर निषध पर्वत आया है। और उसी क्षेत्रकी दूसरे भाग पर महाविदेहको स्पर्श करनेवाला तथा उसे सीमित करनेवाला नीलवंत पर्वत आया है। ये दोनों पर्वत भूमिसे 400 योजन ऊचे हैं। इन 400 योजन ऊँचे दोनों पर्वत पर पुन: 500 योजनकी ऊँचाईवाले नौ-नौ कूट (शिखर) दूर दूर आए हैं। . 157. फिर भी जितना फर्क पड़ता है उसे जाननेके लिए जम्बू० प्रज्ञ० क्षेत्रस० लोक प्र० आदि ग्रन्थ देखें / 158. एक तारेसे दूसरे ताराविमानके बिचमें इतना अन्तर होने पर भी यहाँसे आकाशमें देखें तो एक दूसरे बिलकुल पास-पास दिखते हैं, यह कैसे ? यह हमारा दृष्टिदोष है / दूर स्थित वस्तुएँ स्वतः बड़े अंतरवाली होने पर भी दूरसे पास पास ही दिखती है। जैसे किसी एक गाँवके वृक्ष या स्थान परस्पर दूर होने पर भी दूरसे तो मानो एक-दूसरेको स्पर्श करके ही स्थित न हों वैसे ही लगते हैं, तो फिर 790 योजन दूर रही वस्तु पास-पास दिखें उसमें क्या आश्चर्य!