________________ व्याघात और निर्व्याघातका जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर ] गाथा 63-64 [ 137 कूट अर्थात् पर्वतके ऊपरके भागमें ऊँचा गया हुआ और अलग दिखाई देनेवाला भाग / परम पवित्र शQजय पर्वतके ऊपर, ऊपरके तल भागके पास पहुँचनेके बाद नौ-टूककी जो टेकरी दिखती है, वह नीचेसे चौड़ी और उपर जाने पर संकरी बनी दिखती है वैसे ही, लेकिन ये टेकरियाँ प्रमाणमें अधिक बड़ी और नीचेसे ऊपर जाने पर दीपशिखा जैसे आकारवाली बनी होनेसे इन टेकरियोंको कूट कहते हैं। इन कूटोंके सहित पर्वतकी ऊँचाई 900 योजन होनेसे तारोंके स्थानसे भी ऊँचाईमें यह पर्वत अधिक बना है। ये कूट ऊपरकेशिखर भागमें 250 योजन चौड़े हैं। इन कूटोंके दोनों ओर आठ आठ योजन दूर नक्षत्रके विमान हैं। [63] (प्र० गा० सं० 14) अवतरण-व्याघातसे जघन्य अन्तर कितना ? और निर्व्याघातसे जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर कितना? छावट्ठा दुन्निसया, जहन्नमेयं तु होइ वाघाए / निवाघाए गुरु लहु, दो गाउय धणुसया पंच // 64 // गाथार्थ-व्याघातसे जघन्य अन्तर (250 + 8 + 8 = 266) दो सौ छियासठ योजन प्रमाण हुआ, निर्व्याघातमें उत्कृष्ट अन्तर दो कोसका और जघन्य अन्तर पांचसौ धनुषका होता है। // 64 / / विशेषार्थ-एक नक्षत्र विमानसे आठ योजनकी दूरी पर कूट और उस कूटकी चौड़ाई 250 योजन, उसके बाद (पार होने पर ) दूसरे (परोक्ष ) भागके आठ योजन दूर जाने पर नक्षत्रका विमान आता है। अतः तीनोंका जोड़ करे तो 266 योजनका एक नक्षत्रसे दूसरे नक्षत्रका निषध और नीलवन्त पर्वतकी अपेक्षासे (व्याघातसे ) जघन्य अन्तर समझें। वैसे ही तारा-विमानका अन्तर भी 266 योजनका समझ लें / पर्वतादिकके व्याघातके बिना एक तारेसे अन्य तारेका तथा एक नक्षत्रसे अन्य नक्षत्रका उत्कृष्ट अन्तर दो कोसका और जघन्य अन्तर लें तो पांचसौ धनुष होता है। नक्षत्र ताराओंके समुदायसे ही बने होते हैं [ 64] // मेरु तथा निषधादिपर्वत व्याघातसे तथा व्याघातके बिना तारा-नक्षत्रों का अन्तर-यन्त्र / / नाम मेरु व्याघातसे | निषधादि व्या० | व्याघातके बिना | व्या० बिना ज० अं० तारे-तारेका | 12242 यो० | 266 यो० / 2 कोस / 500 धनुष नक्षत्र-नक्षत्रका | कोस बृ. 18