________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . (5) भवधारण स्थिति-मर्यादा उपस्थित करावे वह आयुष्य / (6) अलग अलग गति, जाति, विविध शरीर आदिका निर्माण करनेवाला नामकर्म / (7) उच्च और नीचका व्यवहार उत्पन्न करनेवाला गोत्रकर्म / (8) लेन-देन में या वस्तुके उपभोगमे या शक्तिके उपयोगमें विघ्न करनेवाला अंतरायकर्म / ____ इन अष्टकर्मों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये कर्म घाती हैं; शेष चार अघाती हैं। 'घाती' अर्थात् आत्माके शान-दर्शन-चारित्रादिक मूलगुणोंका घात करे वह धाती और जो मूलगुणोंका नाश न करे वह 'अघाती' रूपमें पहचाना जाता है। आठों कौमें राजा, सेनापति या सरदारका स्थान रखनेवाला मोहनीय कर्म है। संग्राममें सेनापतिकी पराजय न हो तब तक शेष लश्कर जीता नहीं जा सकता, वैसे यहाँ भी कर्म शत्रुके साथके संग्राममें मोह महाराजा या सेनापतिकी पराजय न हो तब तक शेष सातों कर्मीका बल नहीं तूटता / सेनापतिकी मृत्यु होने पर या शरण में आने पर, लश्कर अपने आप भाग जाए या शरणमें आवे, वैसे मोह सेनापति पर विजय होनेसे शेष कम स्वयं शीघ्र पराजित हो जाते हैं। दूसरी तरहसे मोहनीयको शरीरकी धोरी नसकी भी उपमा दी जा सके। वो तुटने पर मनुष्यकी मृत्यु जलदी हो जाती है। ___ऊपरकी भूमिका इसलिए की कि- यहाँ 'मोक्ष' तत्त्व और उसकी प्राप्तिके लिए बात करनेकी है, यह मोक्ष प्राप्ति उसे ही होती है जिसे केवलज्ञान-सर्वज्ञत्व और केवलदर्शन-सर्वदर्शित्व प्राप्त हुआ हो। क्योंकि प्राप्तिके पहले इन दोनोंकी जरूरत अनिवार्य मानी गई है। और यह केवलज्ञान तथा केवलदर्शन तब हो सकता है, जब उनके प्रतिबंधक स्वरूप चार घातीकोका नाश हो / यहाँ एक वस्तु समझ लेना जरूरी है कि इस विश्व में जैन परिभाषामें ‘कार्मण वर्गणा' के नामसे परिचित अनंतानंत जड परमाणु-पुद्गलो सर्वत्र ठांस ठांस कर भरे पडे हैं। ये परमाणु हमारे दृश्य चक्षुसे अदृश्य होते हैं / हम देख नहीं सकते / प्रत्येक आत्मा क्षण क्षण पर (1) मिथ्यादर्शन (असत् , विचार-श्रद्धा), (2) अविरति (अत्याग) (3) प्रमाद, 4 कषाय ( क्रोध-मान-माया-लोभ) और (5) योग, (मन-वचन-काय) कर्म बंधन. इन पांच हेतओं द्वारा जब जब शभ या अशुभ प्रवृत्ति करती है उसी समय आत्मा उक्त कार्मण वर्गणाके पुद्गलों अपनी तरफ खिंचती है और उसी समय (उन अणुओंमें कर्म परिणाम उपस्थित होता है / ) उन परमाणुओंका आत्मप्रदेशोंके साथ मिलन होता है, जिस समय मिलन हुआ उसी समय उन अणुओंमें शुभाशुभ फल, उसे देनेकी समयमर्यादा आदि साथ ही साथ निश्चित हो जाता है / इस तरह कर्मका बंध होता है / जबकि उससे प्रतिपक्षी सम्यक् दर्शन, विरति (त्याग), अप्रमाद, कषायत्याग (क्षमा, नम्रता, सरलता और संतोष) इत्यादि हेतुओंसे कर्मबंधके हेतुओंका अभाव होनेसे नवीन कर्मबध होना बद हो जाता है। यहाँ साधक आत्माके लिए साधनक्रम ऐसा है कि, प्रथम तो उसे प्रतिक्षण आत्मामें आते हुए कर्मोको रोकने का कार्य करना पड़ता है इसके लिए ऊपर कहे गए प्रतिपक्षी चारित्रादिक गुणों के द्वारा कर्मका संवरण-रुकावट कर दे / इस तरह नयोंको तो रोके / अब क्या करना? तो अब सत्तामें रहे पूर्वसंचित अनंतकर्मों हैं उनकी तप-स्वाध्याय-ध्यानादिक