________________ 364 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा-१८३ . जिस भवमें उत्पन्न हुआ है उस भवयोग्य शरीरकी रचना शुरू कर देता है तब वह औदारिक-वैक्रियादिसे मिश्रकाय योगवाला बनता है, अर्थात् मनुष्य या तिर्यचके रूपमें जनम धारण करनेवालेको औदारिकमिश्र और देव-नारकके रूपमें जनम लेनेवालेको वैक्रियमिश्रयोग होता है। ये दोनों ( तैजस-कार्मण ) शरीर कि जिन्हें इन्द्रिय या हाथ-पैर आदि अंगोपांग नहीं होते हैं, उत्पत्तिके समय पर ये ३२८अंगुलके 33°असंख्यातवें भाग जितने बड़े ही होते हैं / देहधारी जीव (प्रायः) प्रत्येक क्षण पर सतत आहार करता रहता है, अतः पूर्वभवके शरीरको छोड़कर ऋजु या वक्रागतिसे उत्पत्ति प्रदेशमें जहाँ वह उत्पन्न हुआ है उसी क्षणसे (ते. का.) दो शरीर द्वारा औदारिकादि शरीर योग्य पुद्गलोंका जो आहरण-ग्रहण करता है .. उसे ओजाहार करना कहा जाता है। साथ ही आहार तथा तद्भवयोग्य शरीरादिक पर्याप्तिओंका आरम्भ तो दूसरे समयसे ही शुरू होनेसे जीव दूसरे समयमें अमुक अंश पर औदारिकादि शरीरपन प्राप्त करता होनेसे, दूसरे समयसे दूसरे शरीरपर्याप्तिकी निष्पत्ति न हो अर्थात् अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव औदारिकादि मिश्र (तेजस-कार्मण सह औदारिक-वैक्रियादि) काययोगसे अपने शरीर योग्य जिन पुद्गलोंका ग्रहण करें उनको ओजाहार जानें / यह ओजाहार शरीर पर्याप्ति तक कार्यशील रहता होनेसे एक अन्तर्मुहूर्त्तकाल है। लोमाहार-त्वचा-चमड़ीके छिद्र द्वारा ग्रहण किया जानेवाला आहार है। यह आहार शरीर पर्याप्ति बाद (अथवा स्वयोग्य पर्याप्ति बाद) यावज्जीव हो सकता है / प्रक्षेपाहार-अर्थात् भोजनके रूपमें या कवलके 331रूपमें मुख द्वारा लिया जानेवाला आहार / अतः इसका दूसरा नाम ‘कवलाहार' भी है / यह आहार स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण होनेके बाद लिया जा सकता है / [ 183] अवतरण--तीन प्रकारके आहारमेंसे कौन-सा आहार किस अवस्था में मिलता है ? इसे बताते हैं। 329. अंगुलकी लम्बाई और चौड़ाई दोनोंका असंख्यातवा भाग ले या नहीं ? 330. देहमुक्त अशरीरी आत्माके असंख्यातमानसे ( सशरीरी होनेसे ) इसे कुछ अधिक बड़ा समझना / 331. कवल 'प्रक्षेप' पूर्वक होता होनेसे इसे प्रक्षेप आहार कहा जाता है। जीभसे जो स्थूल आहार डाला जा सके, वह है प्रक्षेप /