________________ * नरकगतिप्रसंग में द्वितीय भवनद्वार . . .15 . पीते हैं अथवा आरी से काटते हैं। इतना ही नहीं, अपनी वैक्रियशक्ति से श्येनादि (बाज पंक्षी) पशु-पक्षी—शेर, बाघ, तेंदुआ, लोमडी, गीध और कंक पक्षी (एक मांसाहारी पक्षी जिसके पंख बाण में लगाये जाते थे) तथा उल्लू आदि से अनेक प्रकार की कदर्थनाएँ (सताने-पीडा) करनेवाले जन्तुओं से पीडित करवाते हैं / गर्म की गई बालू पर तथा असिपत्र जैसे तीक्ष्ण धारवाले वन में प्रवेश कराते हैं / वैतरणी नदी में भी उतारते हैं, कुक्कुट की तरह आपस में लडा मारते हैं / युक्ति-प्रयुक्ति करके युद्ध भी कराते हैं। साथ ही ये परमाधामी लोग नारक के कान-नाक काटते हैं, आँखें फोडते हैं, हाथ-पैर काट डालते हैं, छाती जलाते हैं, कडाही में तलना, तीक्ष्ण त्रिशूल से भेदना और अमिमुखी भयंकर जानवरों के पास भक्ष्य करवाने का कार्य करते रहते हैं। इतना ही नहीं, नारकों को वे यमराज की कुल्हाडी से भी अधिक तीव्र धारदार तलवार से छेदते हैं। नारक अभी रुदन कर रहे हैं वहां तो इन्हें वे क्षुधातुर भयंकर विषैले बिच्छुओं से घेर लिए जाते हैं, उनके दोनों हाथोंको तलवार से काटकर तथा निर्बल करनेके बाद उनके समग्र बदनों को आरी से कटवाएं जाते हैं। साथ ही गर्म-गर्म उबला हुआ सीसा पिलाते हैं या शरीर सुलगाते हैं अथवा उन्हें कुंभी या मूषा अर्थात् धातु गालने-बनाने की भट्ठी में पकाते हैं। इन सब के कारण ये नारक चाहे जितना भी चिल्लाएँ, फिर भी प्रज्वलित खदिर (खैर का पेड) के ताप की ज्वाला में उन्हें मजे जाते हैं / साथ ही प्रज्वलित अंगारों के समान वज्र के भवनों में उत्पन्न होते हैं जहां विकृत शरीर वाले वे बडे ही दीन स्वरों में जब रुदन करते हैं वहाँ उन्हें फिर से जलाये जाते हैं / कर्म से पराधीन ये बेचारे या दीन जीव मदद के रोकता है तो अंत में पंद्रहवाँ परमाधामी वज्र के कंटकोंवाले शाल्मलीवृक्ष पर नारकों को चढाकर उस पर लौटाता. है / इस प्रकार वे सभी नारकों को सिर्फ अपनी मौज की खातिर दुःख देकर स्वयं अनंता पापकर्मों को संचित करके, अत्यंत दु.ख में मृत्यु पाकर अंडगोलिकरूप उत्पन्न होते हैं। . परमाधाभी लोग मरकर अंडगोलिकरूप में उत्पन्न होकर किस तरह पकडे जाते हैं, उस सम्बन्धी वर्णन नीचे दिया गया है / ___ जहाँ सिन्धु नदी लवण समुद्र से मिलती है उसी स्थान से दक्षिण की ओर पचपन (55) योजन दूर जंबूवेदिका से साडे बारह योजन दूर एक भयानक स्थल है, वहाँ 3 // योजन समुद्र की गहराई है और साथ ही 47 अंधकारमय गुहाएं भी आयी हुई हैं जिनके भीतर वज्रऋषभनाराच संघयणवाले महापराक्रमी, मांस-मदिरा और स्त्रियों के महालोलुप (आसक्त) ऐसे जलचर मनुष्य रहते हैं। वे बडे ही कुरूप, अप्रिय, स्पर्श से कठोर तथा देखने में अति भयंकर लगते हैं। वे साढे बारह हाथ ऊची कायावाले तथा संख्याता वर्षायुषी होते हैं।