________________ देवोंकी उपपात समयकी स्थिति ] गाथा 189-191 [ 375 सकते हैं। इससे समझना कि अगर देवोंमें सप्तधातुका अभाव मिलता है तो शरीर किस पर आधारित (टिका हुआ) रहता है ? जिस तरह औदारिक शरीरमें बैठने-उठने या घुमनेकी क्रिया अस्थि, रुधिर, मांसादिककी मददसे ही सम्भवित बनती है, उस प्रकार देवोंमें तो यह नहीं होता; तो क्या उनका शरीर मांसके पिण्ड जैसा होगा क्या ? तो इसके उत्तरमें यह समझना है कि-देवोंमें संघयण नहीं मिलता अर्थात् अस्थिरचनाका बिलकुल अभाव होता है / तदनन्तर गाथामें बतायी गयी अन्य चीजें भी मिलती नहीं है, क्योंकि वैक्रियवर्गणाके पुद्गलोंसे ही देवोंका शरीर बना हुआ है, अतः औदारिकभावी सप्तधातुओंका अभाव जरूर है, लेकिन इसके अर्थमें उनका शरीर मांसके पिण्ड समान समझना नहीं है / लेकिन जहाँ जहाँ कठिनाई-कठोरता या कुछ-कुछ कोमलताकी जरूरत है वहाँ-वहाँ ये पुद्गल अधिक समूहमें सुव्यवस्थितरूपसे पाये जाते हैं। ____अतः देवोंका शरीर अत्यन्त स्वच्छ, तेजोमय-दसों दिशाओंको अत्यन्त प्रकाशित करनेवाला, सिर्फ सर्वोत्तम वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शादिसे उत्पन्न तथा शुभ वैक्रिय पुद्गलोंके समूहसे बना हुआ सौभाग्यादि गुणयुक्त होता है। 189) - देव-देवियाँ देवशय्यामें ही उत्पन्न होते हैं अतः उन्हें मनुष्यादिवत् योनिमें उत्पन्न होना या गर्भ-दुःखको सहन करना पड़ता नहीं है, परन्तु उत्पत्तिस्थान पर देवदूष्य वस्त्रसे आच्छादित विवृत्तयोनीरूप एक देवशय्या होती है / देवगतिमें जनम लेनेवाले जीव अपने पूर्वके महान पुण्योदयसे एक क्षणमात्रमें उपपातसभामें देवदूष्य वस्त्रके नीचे शय्या पर प्रथम समय पर अंगुलके असंख्यातवें भाग पर उत्पन्न होते हैं / जनमके साथ ही आहारादिक पाँच पर्याप्तियाँ एक ही अन्तर्मुहूर्तमें समाप्त करनेपूर्वक पूर्णपर्याप्तिवाले होते हैं और उत्पन्न होनेके साथ ही भवस्वाभाविक अवधि अथवा विभंगज्ञानको प्राप्त करके, यथायोग्य भोगयोग्य तरुण अवस्थावान् हो जाते हैं। इसी कारणसे अन्य गतिके जीवोंकी तरह देवोंमें गर्भधारण-कुक्षि जन्म-बाल्यवृद्धादि भिन्न अवस्थाएँ आती नहीं है / जब वे देवशय्यामें जनमते हैं उस समय स्वाभाविक सुन्दर रूपवाले वस्त्राभूषणरहित होते हैं, परन्तु इसके बाद ही वहाँ उपस्थित रहकर सत्कारनेवाले सामानिकादि देव-देवियाँ 'जय जय' शब्दपूर्वक नमस्कार करके, जिनपूजनसे प्राप्त अनेक लाभोंको स्वामीके मनोगत अभिप्रायसे बताकर उपपात सभाके पूर्वद्वारसे सभी आभियोगिकादि देव, स्वाभाविक विकुर्वित अनेक भाँतके समुद्र-जलौधिसे भरे हुए, उत्तम रत्नोंके महाकलशोंसे द्रहमें ले जाकर स्नान कराते हैं तथा बादमें अभिषेक सभामें स्नान कराते हैं / तदनन्तर उत्साही सभी देव अलंकार पभामें विधिपूर्वक ले जाकर, सिंहासन पर बिठाकर शरीर पर शीघ्र सुवर्णके उत्तम देव र वस्त्र, रत्नावलि आदि हार, अंगूठी (मुद्रिका ), कुण्डल, अंग-केयूरादि सुशोभित ' णोंको सर्वाग पर पहनाते हैं। इसके बाद व्यवसाय सभामें विधिपूर्वक (प्रदक्षिणादि )