________________ भवनपति और व्यन्तरनिकाय संबंधी परिशिष्टो ] गाथा 48 [111 तथा त्रायस्त्रिंशक देव होते नहीं हैं। // 47-48 // (प्र० गा० सं०१०-११) ..... उपसंहार-.. .. इति व्यन्तराणां सुराणा-सुरायु-नगर्यो वपुर्वस्त्रवर्णादिव्याख्या / . अपि व्यन्तरेन्द्रात्मसंरक्षकाणां तथा सप्तसैन्याधिपानां च संख्या // 1 // - [इति संग्रहश्लोकः ] . . // इति प्रस्तुत-भवनद्वारे प्रकीर्णकाधिकारः समाप्तः // . // श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः / / भवनपति तथा व्यन्तरनिकायाश्रयी लघुपरिशिष्ट प्रथम भवनपतिनिकायाश्रयी, परिशिष्ट नं. 1 1. भवनपतिके प्रत्येक इन्द्रकी किस-किस प्रकारकी शक्ति है ? तथा कौनसे निकायके देवोंका किस-किस द्वीप समुद्राश्रयी कहाँ कहाँ निवास है ? इसके लिए देखें-संग्रहणीकी 'जम्बुद्वीवं छत्त'-गाथाकी लघुटीका, बृहत्टीका तथा देवेन्द्रस्तव, लोकप्रकाश, जीवाभिगमादि ग्रन्थ' / 2. भवनपति देवोंके भवन (आवास) पंक्तिबद्ध न समझे लेकिन विप्रकीर्ण अर्थात् अलग अलग . समझे। . .. 3. भवनपतिदेवोंके चिह्नादिकका जो वर्णन किया है, उसके बारे में कतिपय मतान्तर प्रवर्त्तमान हैं। देखिए, औपपातिक तथा प्रज्ञापनादि प्रन्थ / / 4. नरकके जीवोंको तथाविध पीडा देनेवाले, पन्द्रह प्रकारके परमाधामी देवोंको भवनपति निकायान्तर्गत ही जानें / 5. चमरेन्द्रादि इन्द्रोंकी बाह्य, मध्यम और अभ्यन्तर इस तरह तीन प्रकारकी पर्षदाएँ होती हैं, इनमें यदि किसी देवको अभ्यन्तर सभामें सन्देश पहुँचाना हो तो पहले वह बाह्यसभामें भेजा जाता है, वे उसे मध्यसभा पहुँचाते हैं और मध्यसभावाले अभ्यन्तर पर्षदामें भेजें और वे उसकी योग्य व्यवस्था करें, साथ ही अभ्यन्तर सभामें पास किया हुआ कार्य मध्यसभाको कार्यान्वित करनेके लिये सौंपा जाय, मध्यसभावाले बाह्यसभावालेको (बाह्य सभासदोंको ) सौंर दें और उस बाह्यसभाके देव आज्ञानुसार कार्यान्वित करें। इस तरह