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________________ 350 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 170-171 विशेषार्थ-अब देवियोंकी उपज ( उत्पत्ति ) भवनपतिसे लेकर सौधर्म-ईशान ये दोनों देवलोक तक ही है। इसलिए उन सभी देवोंको भी देवियों के साथ सप्रविचारी ( सविषयी ) कहे जाते हैं। दो देवलोकसे उपरि देवलोकमें उनकी उत्पत्ति नहीं होती है, अतः वे सभी देव अपनी स्वदेवियोंसे रहित माने जाते हैं। लेकिन आठवें सहस्रार कल्प तक तो देवियोंका आना-जाना रहता होनेसे ( और अच्युतान्त तक प्रविचारपन रहता होनेसे ). वे सभी देवोंको समविचारी-सविषयी जानें। सहस्रारसे उपरि हिस्सोंमें देवियोंका गमनागमन नहीं है। सिर्फ अच्युतान्त तक ही देवोंका गमनागमन होता है। और अच्युतान्तसे ऊपर तो देवोंका भी गमनागमन नहीं रहता है। क्योंकि नीचे रहनेवालों में अधिक ऊपर जानेकी शक्ति नहीं है और उपरि लोगों में शक्तिसामर्थ्य होते हुए भी नीचे आनेका प्रयोजन नहीं है। नौ अवेयक तथा अनुत्तरवासी देव' अप्रविचारी है। वहाँ रहते हुए वे जिनेश्वरके कल्याणक आदि प्रसंग पर नमस्कार करते हैं, परन्तु ( कल्पातीत ) आचार रहित होनेसे कल्याणक आदिके किसी भी प्रसंग पर यहाँ आते नहीं हैं। सिर्फ अल्पकषायी उत्तम कोटिके उन देवोंको तात्त्विकादि विचारणामें जब शंका उत्पन्न होती है, तब उसका समाधान अवधिज्ञान द्वारा ग्रहण किए हुए भगवानसे इन्हीं ( उत्तर रूप) मनोद्रव्योंको साक्षात् देखकर ‘ऐसे द्रव्योंका आकार यह ही उत्तर स्वरूप है। ऐसा समझकर समाधान कर लेते हैं। अतः उन्हें यहाँ आनेका कोई प्रयोजन नहीं है और इसलिए हमारी अपेक्षा वे अधिक (अनन्त ) सुखी हैं। [ 170 अवतरण-अब देवलोकवर्ती किल्बिषिक तथा आभियोगिक देवोंका आयुष्य तथा स्थानक बताते हैं। तिपलिअ तिसार तेरस,-सारा कप्पदुग-तइअ-लंत अहो / किब्बिसिअ न हुंतुवरिं, अच्चुअपरओऽभिओगाई / / 171 / / गाथार्थ-प्रारम्भके दो देवलोकके अधः स्थान पर तीन पल्योपमकी, तीसरे सनत्कुमार कल्पके नीचे तीन सागरोपमकी तथा छट्ठवें लांतक कल्पके अधो भाग पर तेरह सागरोपमकी आयुष्यवाले किल्बिषिया देव बसते हैं। लांतकसे ऊपरके कल्पोंमें किल्बिषिया देव नहीं हैं और अच्युतसे ऊपर तो आभियोगिकादिक देव भी नहीं है।।। 171 // विशेषार्थ-किल्बिषिक देव अशुभ कर्म करनेवाले होनेसे करीब चण्डाल ३२°जैसे हैं। 320. देवोंमें भी अधम जातिके देव हैं जो अस्पृश्य माने जाते हैं / वहाँ भी अनादिकालसे स्पश्र्यास्पीकी व्यवस्था है तो फिर मनुष्यलोकमें हो उसमें कौन-सा अचरज ? ऐसी सिद्ध व्यवस्थाका सर्वाश रूपमें नाश करनेके भगीरथ प्रयत्न हो रहे हैं, फिर भी वैसे प्रयत्नोंमें कायमके लिए सफलता प्राप्त नहीं होगी / क्योंकि कर्मका सिद्धांत अचल होता है / और एक बात यह भी याद रहे कि अस्पृश्य देवोंका निवास
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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