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________________ किल्बिषिक देवोंका प्रकार और उनका निवासस्थान ] . गाथा 171 [ 351 - चण्डाल जैसा कार्य करनेवाली यह देव जाति अपने कुकर्मके उदयसे दैवीरूप पाकर भी कुकर्म करने की अवस्थाको प्राप्त होते हैं तथा उत्तम देवोंके स्थानसे भी कई दूर रहनेके अधिकारी बने हैं। इनके तीन प्रकार हैं, जिनमें सौधर्म और ईशानके अधोभाग पर ( अर्थात् ज्योतिषी और वैमानिक निकायके बीच ) तीन पल्योपमकी आयुष्यवाले ये किल्विषिक बसते हैं। तीसरे सनत्कुमारके अधोभाग पर तीन सागरोपमकी आयुष्यवाले और लांतक कल्पके अधोभाग पर तेरह सागरोपमकी आयुष्यवाले किल्बिषिक बसते हैं। ये तीन ही उनके उत्पत्ति स्थान हैं। अर्हन् भगवन्तकी आशातनासे (विराधना-अवज्ञासे ) जमाली ( एक साधु )की तरह पूर्वभवमें देव-गुरु-धर्मकी निंदा करनेसे, धर्मके कार्योंको देखकर जलन करनेसे उत्पन्न अशुभ कर्मके उदयसे ये अधर्म कार्यकर्ता किल्बिषियादेवके रूपमें उत्पन्न होते हैं। यहाँ उन सभी कल्पके अधोस्थान पर किल्बिषिया हैं। अब यह अघः शब्द प्रथम प्रस्तरवाची नहीं है, क्योंकि उस-उस कल्पकी प्रथम प्रस्तरकी स्थितिके साथ इन देवोंकी उक्तं स्थितिका मेलजोल (सम्बन्ध ) ठीक नहीं बैठता। इसके अलावा अन्य विमान पर तो उनकी अधम स्थितिके कारण अस्तित्व सम्भवित भी नहीं है। यहाँ अधः शब्द तत्स्थानकवाची जानें, अर्थात् उस प्रत्येक देवलोकमें साथ-साथ नहीं लेकिन नीचे-दूर निवास हैं। ये किल्बिषिकोंका जनम तो लांतकसे ऊपर तो होता ही नहीं हैं। सिर्फ अच्युतान्त तक दूसरे आभियोगिक आदि (आभियोगिक अर्थात् दास-सेवक योग्य कार्य बजानेवाले तथा ' आदि ' शब्दसे सामानिकादि प्रकीर्णक ) देवोंका जनम होता है। इससे आगे उनकी उत्पत्ति नहीं है, क्योंकि ग्रैवेयक-अनुत्तर देवोंमें अहमिंद्रपन होनेसे उनमें उनकी कोई आवश्यकता भी नहीं है। अतः वहाँ छोटे-बडे भेदोंका अस्तित्त्व ही नहीं है सभी एक-सी समानता भुगतते हैं / [ 171 ] // वैमानिकमें किल्बिषिकोंका उत्पत्तिस्थान तथा आयुष्य यन्त्र // सौधर्म-ईशानके तल पर | तीन पल्योपमायुषी / | किल्बिषिया देव हैं सनत्कुमारके तल पर | तीन सागरोपमायुषी लांतक कल्पके तल पर | तेरह सागरोपमायुषी अवतरण-अब सौधर्म-ईशान कल्पमें अपरिग्रहीता देवियोंकी विमान संख्याको जणाते हुए जिस-जिस आयुष्यकी देवियाँ जिस-जिस देवोंके उपभोगके लिए होती हैं, उस प्रसंगको बताते हैं। (आवास) देवलोकमें भी सबके साथ नहीं है, लेकिन स्वस्थानसे अलग है साथ ही देवलोकसे दूर और अधो भाग पर है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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