SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 352 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 172-175 अपरिग्गहदेवीणं, विमाण लक्खा छ हुंति सोहम्मे / पलियाई समयाहिय, ठिइ जासिं जाव दस पलिआ / / 172 // ताओ सणंकुमारा-णेवं बड्ढति पलियदसगेहिं / जा बंभ-सुक्क-आणय-आरण देवाण पन्नासा // 173 // ईसाणे चउलक्खा, साहिय पलियाइ समयअहिय ठिई / जा पनर पलिय जासिं, ताओ माहिंददेवाणं // 174 // एएण कमेण भवे, समयाहियपलियदसगवुडढीए / लंत-सहसार-पाणय-अच्चुयदेवाण पणपन्ना // 175 / / गाथार्थ-सौधर्मदेवलोकमें अपरिग्रहीता देवियोंके छः लाख विमान हैं। साथ ही एक पल्योपमकी आदिसे समय समय अधिक करते करते यावत् जिनकी स्थिति दस पल्योपम (वहाँ तककी भिन्न-भिन्न आयुष्यवाली) होती हैं वे देवियाँ सनत्कुमार देवलोकमें उपभोगार्थ के लिए जाती हैं / लेकिन आगेके कल्पोंके लिए वे जाती नहीं है / साथ ही उसी प्रकार दस पल्योपमसे आरम्भ करके समयादिककी वृद्धिसे दस-दस पल्योपम प्रक्षेप करके सोचनेसे अर्थात् यावत् कुल 20 पल्योपम आयुष्य तककी देवियाँ ब्रह्म देवलोक भोग्य जानें / उसी प्रकार यावत् 30 पल्योपमायुषी देवियाँ शुक्र देवलोक भोग्य, 40 पल्योपमायुषी देवियाँ आनत देवोंके भोग्य और 50 पल्योपमायुषी देवियाँ आरण देव भोग्य जाने / अब ईशानकल्पमें अपरिग्रहीता देवियोंके चार लाख विमान हैं। इनमें जिन देवियोंकी साधिक पल्योपमायुष्यकी स्थिति है वे तो ईशानदेवके भोगरूप है। और इनके आगे समयादिककी वृद्धिसे यावत् 15 पल्योपमायुषी देवियाँ माहेन्द्रदेव भोग्य, 25 पल्योपमवाली लांतकके, 35 पल्योपमवाली सहस्रारके, 45 पल्योपमवाली प्राणतके तथा 55 पल्योपमायुषी अच्युतकल्पके देवोंके भोग्य ही होती हैं / [ 172-175] विशेषार्थ-अपरिग्रहीता अर्थात् पत्नीके रूपमें जिसका ग्रहण होता नहीं है वैसी / इन देवियोंकी उत्पत्ति सौधर्म और ईशान दोनों कल्पमें ही है / इनमें सौधर्म देवलोकमें अपरिग्रहीतादेवीके उत्पत्तिस्थानभूत छ: लाख विमान हैं। उन विमानोंके लिए जिन देवियोंकी परिपूर्ण एक पल्योपमकी स्थिति है उन्हें सौधर्म देवोंके भोग्य ही जानें / जिनकी पल्योपमसे लेकर एक, दो, तीन संख्याता असंख्याता समयसे अधिक करते हुए पूर्ण दस पल्योपम स्थिति तककी है वे सब देवियाँ सनत्कुमार देवोंके भोग्य जानें / अतः वे उनसे आगेके आयुष्यवाले देवोंको चाहती नहीं हैं / इस प्रकार दस पल्योपममें एक, दो संख्य-असंख्य समयकी वृद्धि करते यावत् बीस पल्योपमकी स्थिति तककी देवियाँ ब्रह्मकल्पके देवोंके भोग
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy