________________ * किस जीवके कितने प्राण है? . पर्याप्ति पूरी करे तब प्राप्त होते हैं। अतः दूसरे प्राणोंको उत्पन्न होनेमें अंतर्मुहूर्तका समय चाहिए। आयुष्यप्राण पूर्ण होने पर शेष सारे प्राण (मृत्युके साथ) खत्म हो जाते हैं / आगामी भवमें अपने शुभाशुभ कर्मके हिसाबसे जिस जन्ममें जितने प्राण मिलनेके हों उस जन्ममें उतने प्राप्त कर लेता है। किस जन्ममें किस जीवके कितने प्राण हों ? यह बात करके गाथाका विशेषार्थ पूर्ण किया जाएगा। किस जीवके कितने प्राण हैं ?–एकेन्द्रियोंके पांच इन्द्रिय प्राणोंमेंसे मात्र एक ही स्पर्शन इन्द्रिय, तीन बलमेंसे कायबल, श्वासोच्छवास और आयुष्य ये चार ही प्राण होते हैं। दो इन्द्रिय जीवोंके उन्हीं चारके उपरांत रसना (जीभ ) इन्द्रिय और वचनबल अधिक होनेसे छः, त्रिइन्द्रियोंके वे ही छः, उपरांत एक घ्राणेन्द्रिय (नासिका) अधिक होनेसे सात, चउरिन्द्रियके वे ही सात, उपरांत चक्षुइन्द्रिय एक बढनेसे आठ, असंज्ञि पंचेन्द्रियके आठके उपरांत एक श्रोत्रेन्द्रिय अधिक होनेसे नौ और संज्ञि पंचेन्द्रियके मनोबल अवश्य होता है अतः उसे दसों प्राण होते हैं। जीवका सामान्यतः विकासक्रम भी ऐसा है कि वह धीरे धीरे अधिक प्राण प्राप्त करता हुआ आगे बढता है। लेकिन प्राणका विकासक्रम शरीरमें नीचेसे ऊपर जाता हो। शरीरके बाद रसना ही, रसनाके बाद ही नासिका इस तरह / दूसरी बात ध्यानमें यह रखनी कि मनोवल और मनोयोग अलग चीज है। बल अर्थात् शक्ति और योग अर्थात् व्यापार, ऐसा अर्थ होता है। अर्थात् मनोयोग तब कहा जाए जब जीव विचार कर सके ऐसा बल या शक्ति प्राप्त की हो। यह जो मननशक्ति है उसे ही मनोवल कहना है। अर्थात् अगर मनोवलको साधन कहें तो मनोयोगको साध्य कहा जा सकता है। इस तरह 340 वी गाथाका सुविस्तृत अर्थ पूर्ण हुआ। [340] अवतरण- स्थानांग आदि सूत्रमें प्रारंभकी आहारादि चार संज्ञाएँ भगवतीजी आदिमें दस और आचारांग आदिमें सोलह संज्ञाएँ दर्शाई हैं। यहाँ दो गाथाओंके द्वारा दस और सोलह संज्ञाओंको बताते हैं। इनमें प्रथम चारों गतिके प्राणीमात्रमें देखने मिलती दस संज्ञाओं (चेष्टाओं-इच्छाओं)को बताते हैं। 549. आहारभयपरिग्गह...[ आचा. सू.-१-नि. गा. 38-39]