________________ * 256 . .श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * आँहारे भय - मेहुण-परिग्गहा कोह माण माया य / लोमे ओहे लोगे दस सण्णा हुति सव्वेसिं // 341 // [प्र. गा. सं. 71] गाथार्थ - विशेषार्थवत् / / / 341 // विशेषार्थ- संज्ञा दो प्रकारकी है। 1 ट्रॅव्यसंज्ञा और 2. भावसंज्ञा / पुनः भाव-.. संज्ञा दो प्रकारकी है। 1. मतिज्ञानादिज्ञानरूप और 2. अनुभवरूप। यहाँ द्रव्यसंज्ञा या ज्ञानरूपसंज्ञाका विषय नहीं है। यह गाथा तो अनुभव रूपमें दीखती संज्ञाओंको जणाती है। ये संज्ञाएँ स्वस्व कर्मोदयसे प्राणीमात्रके होती हैं। वे कुल 16 प्रकारकी हैं। इनमें दस तो प्राणीमात्रमें होती हैं / लेकिन आगे आनेवाली गाथामें बताई 6 . संज्ञाएँ तीन गतिमें नहीं होती, मात्र मनुष्योंके ही होती हैं। अर्थात् मनुष्योंके 16 संज्ञाएँ घटित होती हैं। अनुभवरूप संज्ञाओंकी व्याख्याः१. आहारसंज्ञा- आहारके अभिलाषरूप जो चेष्टा वह / यह आहारेच्छा जीवके वेदनीय कर्मके उदयसे होती है। 2. भयसंज्ञा - जीवनमें अनेक प्रकारसे अनुभव किया जाता त्रास वह. / यह संज्ञा भय मोहनीयकर्मके उदयसे प्रकट होती है। 3. मैथुनसंज्ञा- पुरुषको स्त्रीके प्रति और स्त्रीको पुरुषके प्रति, तथा पुरुष-स्त्री उभयके प्रति कामाभिलाषकी जो इच्छाएँ जागे वह / . 4. परिग्रहसंज्ञा- पदार्थ परकी मूर्छा-ममता। यह लोभ कषाय मोहनीय कर्मके उदयसे उत्पन्न होती हैं। 5. क्रोधसंज्ञा - चेतन या जड़ द्रव्यादिके प्रति अप्रीतिका भाव उत्पन्न करे वह। क्रोध. गुस्सा, रोषादि होता है वह इस संज्ञाके कारण है / यह क्रोध मोहनीयकर्मके उदयसे होता है। 6. मानसंज्ञा - गर्व, अभिमान या अकड़पन आदि इस संज्ञाके प्रतापसे उत्पन्न होता है। यह मान मोहनीयकर्मके उदयसे जन्म पाता है। 7. मायासंज्ञा - माया, कपट, प्रपंच करनेके परिणाम स्वरूप है / और वह माया मोहनीय कर्मके उदयसे उत्पन्न होता है। 550. तुलना करें-आहारभयमथुनानि तथा क्रोधमानमायाश्च / लोभो लोक ओघसंज्ञा दश सर्वजीवा-- नाम् // ( भ. श. 7, टीका ) 551. दव्वे सचित्ताइ भावेऽणुभवण जाणणा...