________________ मण्डलोंकी अबाधा निरूपण ] गाथा 86-90 [223 अस्त जलदीसे हो तथा रात्रि बड़ी हो, ( सावन मास-प्रावृट्ऋतु) उक्त कारणसे रात्रिदिवसके उदयास्तका अनियमितपन, तथा इसीसे ही ये रातें और दिन लंबे-नाटे और कम ज्यादा मुहूर्त प्रमाणवाले होते हैं; अन्यथा उदय और अस्त स्वस्व क्षेत्राश्रयी तो लगभग नियमित होते हैं। उपरोक्त कारणसे यह तो निश्चित होता है कि सूर्य ज्यों ज्यों आगे-आगे बढ़ता जाए और इससे जिन जिन क्षेत्रों में प्रकाश होता जाए उन उन क्षेत्रोंके लोग क्रमशः, अपने यहाँ सूर्योदय हुआ ऐसा उच्चारण करें, और जब क्रमशः आगे बढ़ता जाए तब उसी क्षेत्रवर्ती लोग प्रकाशके अभावमें क्रमशः पुनः अस्त हुआ ऐसा उच्चारण करें, जिसके लिए पूर्वमहर्षियोंने कहा है कि- . जह जह समये, समये पुरओ संचरइ भक्खरो गयणे / तह तह इओऽवि नियमा जायइ रयणी य भावत्थो // 1 // एवं च सइ नराणं उदय-स्थमणाई होतिऽनिययाई / सयदेस [ काल ] भेए कस्सइ किंची ववदिस्सइ नियमा // 2 // सइ चेव य निदिट्ठो भहमुहूत्तो कमेण सव्वेसि / केसिंचीदाणि पि य विसयपमाणे रवी जेसिं // 3 // [इति भगवती श. प, उ 1 वृत्तौ] - अतः कुल मिलाकर जिस बाजू पर सूर्योदय दृश्यमान हो उन उन क्षेत्रोंकी अथवा * देखनेवालोंकी वह पूर्वदिशा और उन क्षेत्रोंमें जिस बाजू पर सूर्यास्त दृश्यमान हो वह उनकी पश्चिमदिशा हो-अर्थात् कोई भी मनुष्य उदय पाये हुए सूर्यके सामने खड़ा रहे तब उसके सम्मुख जो दिशा होती है वह पूर्व, और पीठके पीछे सीधी दिशा वह पश्चिम, उसी मनुष्यकी बाई बाजूकी दिशा वह उत्तर, और दाहिनी ओरकी दिशा दक्षिण होती है। इस तरह मूल चार दिशाएँ हैं और उन चार दिशाओं में से दो दो दिशाओंके बिच जो कोने पड़ते हैं उन्हें विदिशा अथवा कोणके नामसे पहचानते हैं; अतः पूर्व और उत्तरके बिचकी ईशानदिशा, पश्चिम और उत्तरके बिचकी वायव्यदिशा, दक्षिण और पूर्वके बिचकी अग्निदिशा, दक्षिण और पश्चिमके बिचकी नैऋत्यदिशा और उपलक्षणसे ऊर्ध्व तथा अधोदिशा ऐसे कुल दश दिशाएँ कहलाती हैं / -इति सूर्यमण्डलसंख्या-तव्यवस्था प्ररूपणा च // मेरुकी अपेक्षासे मण्डल-अबाधा निरूपण [यहाँ मण्डलोंकी तीन प्रकारकी अबाधाएँ कहनेकी हैं, इनमें प्रथम मेरुकी अपेक्षासे ( सूर्यमण्डलोंकी) ओघसे अबाधा-१, मेरुकी अपेक्षासे प्रत्येक मण्डलकी अबाधा-२, दोनों सूर्य के परस्परके मण्डलकी अबाधा-३, इनमें प्रथम 'ओघसे ' अबाधा कहलाती है।