________________ .120. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * यह सुख किसी भी इन्द्रियसे ग्राह्य नहीं है,४३१ वचनगोचर नहीं है, मनोग्राह्य नहीं है; तर्क ग्राह्य भी नहीं है; लेकिन सूक्ष्म बुद्धिसे अर्थात् सर्वज्ञसे ग्राह्य है / तप-ध्यान से महासाधना करनेवाला इसका साक्षात्कार कर सकता है / ___अन्यथा इस सुखकी मधुरताको केवली भगवान ज्ञानसे जानने पर भी-गुडको खानेवाला मूंगा आदमी गुडके स्वादको जानने पर भी उसकी मिठास नहीं बता सकता-कह सकता वैसे स्वमुखसे नहीं कह सकते / जैसे मन यथेप्सित अन्न-पानीका भोजन करने के बाद पुरुष अपनेको तृप्त हुआ समझता है वैसे ही सिद्धात्माएँ स्वात्मगुणसे तृप्त हुई होनेसे वे कभी अतृप्त होती ही नहीं हैं अतः वे सदा सुखी ही होती हैं। साथ ही वस्तुतः तीनों जगतमें मोक्षकी उपमा देने लायक कोई दृष्टांत है ही नहीं। वह तो उपमाके लिए अगोचर ही है। उसके लिए उववाईसूत्रमें एक दृष्टांत भी दिया है / ____एक जंगलमें एक म्लेच्छ भील निराबाध रूपसे रहता था। एक बार उसी अटवीमें उलटी चालके घोडेके कारण मार्गभ्रष्ट होकर पासमें रहता एक राजा वहाँ आ पहुँचा / म्लेच्छने उसे देखा / उसने राजाका यथोचित सत्कार किया और मार्ग भूले हुए राजाको मार्ग बताकर उसे अपने देशमें पहुंचा दिया / अब वह म्लेच्छ प्रतिगमन करने की तैयारी करता है लेकिन राजाने देखा कि इसने मुझ पर उपकार किया है अतः उसका बहुत आतिथ्य करना चाहिए / राजाने उसे रहनेके लिए विशाल महल दिया। राजाका माननीय था अतः प्रजाका भी वह माननीय बन गया / यह गरीब म्लेच्छ जन ऊँचे महलकी अटारीमें मनहर बाग-बगीचे में सुंदर त्रियोंसे परिवृत्त अनेक प्रकारके विषय सुखोंको भोगता है। इतने में वर्षाऋत आ गई / आकाशमें मेघाडम्बर हए. मदंगके जैसी मधर गर्जनाएँ होनेसे मयूर केकारव करते नाच उठे, यह देखकर उसे अपना अरण्यवास याद आया तथा वहाँ जानेकी तीव्र अभिलाषाके कारण, अंतमें राजाने उसे रजा दी, अतः वह अपने अरण्यवासमें आ पहुँचा / वहाँ उसे अपने परिवारजन, मित्रोंने पूछाः भाई, आप जहाँ रह आए वह नगर कैसा था? वहाँ कैसा आनंद भोगा? परंतु जंगलमें नगरकी वस्तुओंके समान, वस्तुओंके अभावके कारण कहनेकी अत्यन्त उत्कंठा होने पर भी वह म्लेच्छ एक भी वस्तुको समझा नहीं सका। इसी तरह उपमाके अभावमें सिद्ध परमात्माका सुख नहीं कहा जा सकता / भिन्न भिन्न दर्शनकारोंकी मुक्ति विषयक मान्यतामें तफावत भले ही हो लेकिन एक बाबत पर सब संमत हैं कि मुक्तिसुख सद, चिद्, आनंद स्वरूप है। इससे अधिक चर्चा यहाँ अप्रस्तुत है। ___समाप्त दशमं परिशिष्टम् / - 431. भगवानने कहा है कि वह सुख वाणी, बुद्धि, मति किसीसे ग्राह्य नहीं है / तर्ककी भी गति नहीं, वह दीर्घ, हस्व, गोल या त्रिकोण भी नहीं है, कृष्णादि वर्णरूप भी नहीं है / वह कोई जाति भी नहीं है अर्थात् उसकी उपमा देने लायक कोई पदार्थ विश्वमें है ही नहीं /