________________ भरत, ऐरवत और महाविदेहमें सूर्योदय ] गाथा 86-90 [231 करता था वही ऐरवतसूर्य सर्वबाह्यमण्डलमें दक्षिणार्द्धमण्डल-दक्षिणदिशागत प्रकाशमान होता है। . इस तरह वे दोनों सूर्य प्रथम क्षणसे क्रमशः विचरते विचरते सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें अपने अपने प्रारम्भस्थानमें आ जाते हैं / इस प्रकार उनका 'मण्डलगतिचार' अथवा 'अर्धमण्डल' संस्थितिचार है। सूर्योदय विधि जम्बूद्वीपमें दिवस और रात्रिको विभाजित करनेवाला दोनों सूर्यका प्रकाश है / ये दोनों सूर्य जब सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें होते हैं तब भरतादि क्षेत्र स्थानों में उदय पाता 'भारतसूर्य' उस दक्षिणपूर्वदिशामें-शुद्ध पूर्वसे अर्वाक् दक्षिणकी तरफ जम्बूकी जगतीसे 180 योजनके अन्दर निषध पर्वत पर उदय पाता है; तब उसी सूर्यस्थानसे तिच्छी समश्रेणीसे उत्तर पश्चिममें वैसे ही नीलवन्त पर्वतके ऊपर प्रथम क्षणमें ऐश्वतादि क्षेत्रोंको स्वउदयसे प्रकाशित करता जम्बूद्वीपका ‘ऐश्वतसूर्य प्रकाशता है।' उसमें दक्षिण-पूर्वमें निषध पर्वत पर रहा हुआ भारतसूर्य जब प्रथम क्षणसे आरम्भ होकर आगे आगे कर्णकीलिका-ढबकी एक विशिष्ट गतिसे भरतकी तरफ बढ़ता बढ़ता मेरुकी दक्षिण दिशामें आए हुए भरतादि क्षेत्रोंको स्त्रमण्डल परिभ्रमणसे प्रकाशता है तब ( भारतसूर्यने जिस समय निषधस्थानमें प्रथम क्षणसे आगे बढ़ना शुरू किया) उसी समय इस बाजू पर तिी समश्रेणी पर उत्तरपूर्वमें नीलवन्तके ऊपर रहा हुआ 'ऐरवतसूर्य' भी प्रथम क्षणसे ऊर्ध्व-आ० मं०से आगे विशिष्ट प्रकारकी स्वमण्डलगतिसे मेरुकी उत्तरमें आए हुए उन ऐश्वतादि क्षेत्रोंको प्रकाशमान करता जाता है। ... अब जब भरतकी तरफ आगे बढ़ता हुआ वह भारतसूर्य भरतक्षेत्रमें आकर वहाँसे आगे बढ़ता हुआ दक्षिण-पश्चिमदिशामें आता हुआ (दक्षिण-पश्चिमके मध्यभागके समीप) पश्चिमदिशाके मध्यवर्ती आए हुए पश्चिम महाविदेहक्षेत्रमें उदयरूप होता है और वहाँसे आगे आगे अनन्तर मण्डलकी कोटीको अनुलक्ष्य आगे बढ़ने लगे तब वह सम्पूर्ण पश्चिम महाविदेहक्षेत्रको प्रकाशित कर देता है / इसी तरह जब नीलवन्तपर्वतके स्थानसे गमन करता हुआ ऐरवतसूर्य ऐश्वतक्षेत्रमें आकर आगे बढ़ता हुआ उत्तर-पूर्व दिशामें आकर ( उत्तर-पूर्व मध्यके समीपमें) पूर्वविदेहमें उदयरूप होता है और क्रमशः अपरमण्डलाभिमुख आगे आगे गमन करता हुआ सम्पूर्ण महाविदेहक्षेत्रको प्रकाशित कर देता है तब सर्वाभ्यन्तर मण्डलके दोनों सूर्योंमेंसे एक सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डलके दक्षिणार्द्धको चर कर अनन्तर मण्डलमें उत्तरार्ध मण्डलकी कोटीके प्रथम क्षणमें पहुँचे होते हैं, इसी तरह उसी वक्त दूसरा सूर्य सर्वाभ्यन्तरके उत्तरार्ध मण्डलको चर कर अनन्तर मण्डलमें दक्षिणार्ध मण्डलकी कोटीके ऊपर प्रथम क्षणमें पहुँचा होता है। . इस तरह वे प्रथम मण्डलमें विचरते हों तब सम्पूर्ण प्रमाणका (18 मुहूर्तका)