________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * लिंग में एक समयमें चार, अन्य लिंग में ( अर्थात् अन्य धर्म के तापसादिक लिंग में ) दस और स्वलिंग में ( स्व = अपने साधु लिंग में ) उत्कृष्ट एक समय में एक-सौ और आठ मोक्ष में जाते हैं / // 272 / / विशेषार्थ-यहाँ लिंग अथवा वेदाश्रयी गति बताई हैं अगर चे यों तो वेदों का अस्तित्त्व सर्वत्र है लेकिन यहाँ तो मनुष्यजाति आश्रयी वर्तित त्रिवेदका प्रसंग है अतः इसकी ही बात यहाँ समझानेकी है / पुरुषको पुरुष ही, स्त्रीको स्त्री ही तथा नपुंसकको नपुंसक ही इस तरह किस लिए पहचानते हैं ? तो इसका कारण (कर्मग्रन्थ की भाषा में ) 'वेद': ( साहित्यिक भाषा में ) 'लिङ्ग' तथा लोकवाणी में 'जाति' कहो वही है / यहाँ. वेद लिंग या जाति ये समानार्थक शब्द हैं / इस वेद के हरेक के दो दो प्रकार हैं। वे 1. द्रव्यवेद और 2. भाववेद के नामसे हैं। द्रव्यवेद-अर्थात् पौद्गलिक आकृति-आकार, यह 'नामकर्म' की विविध प्रकृतियों के उदय के फलस्वरूप प्राप्त होता है / भाववेद-अर्थात् चित्त में उत्पन्न होता मानसिक विकार-अभिलाष उस मोहनीय कर्म के उदय के फलस्वरूप है / * इस द्रव्यवेद और भाववेद के बिच साध्य-साधन तथा पोष्य-पोषक का संबंध रहा है / इस वेद के पुरुषवेद, स्त्रीवेद तथा नपुंसकवेद ये तीन प्रकार हैं। स्वस्व कर्मानुसार नामकर्म की विविध प्रकृतियों के उदयसे प्राणी पुरुषाकृति, स्त्री आकृति और नपुंसकाकृतिको प्राप्त करता है। इससे यह द्रव्यवेद कहा जाता है जिस की पहचान बाह्यलिंग या चिह्नसे ही आसानीसे हो जाती है। ____ अब भाववेद-जिसे तात्त्विक रीत से वेद कहना है, क्योंकि यहाँ भावका अर्थ ही इच्छा, अभिलाष-विकार करना है / यह वेद मोहनीयकर्म के उदय के फलरूप होता है, जो बात ऊपर कही भी है / 403. विशेषतः उक्त दोनों लिंग में मोक्ष कहा वह, उनका शेष आयुष्य अन्तर्मुहूर्त शेष रहा हो और केवलज्ञान हो तथा मोक्ष में चले जाए तदाश्रयी समझना / परंतु यदि अन्तर्मुहूर्त अधिकायुष्य हो तो जैन साधु का यथार्थ वेष अवश्य स्वीकार करना पड़ता है और फिर वैसे मोक्ष में जानेवाले स्वलिंग सिद्ध कहलाते हैं, गृहस्थ केवली स्वरुप कूर्मापुत्र का एक ही अपवाद है, जिसे केवलज्ञान होनेके बाद सकारण छः मास होने पर भी साधुवेष प्राप्त नहीं हुआ, और इसीलिए यह एक ही अपक्मद आश्चर्यरुप कहा गया है।