________________ 140. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . बारसजोषण संखो, तिकोस गुम्मी य जोयणं भमरो। . मुच्छिमचउपयभुअगुरग, गाउअधणुजोअणपुहुत्तं // 296 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 296 // विशेषार्थ-अढाईद्वीपके बाहर स्वयंभूरमणादि समुद्रमें उत्पन्न होते शंख आदि प्रकारके दोइन्द्रिय जीवोंका उत्कृष्ट देहमान बारह योजनका, त्रिइन्द्रिय-कानखजूरे, मकोडे आदि की लंबाई तीन कोसकी, चउरिन्द्रिय-भ्रमर, विच्छू, मक्खी आदि का देहमान एक योजनका होता है / तिर्यच पंचेन्द्रियमें संमूच्छिम चतुष्पद [अढाईद्वीपके बाहर जो होते हैं। वो हाथी आदिका उत्कृष्ट देहमान कोस पृथकत्व अर्थात् [दो से नौ कोस तककी संख्या पृथकत्व कहलाता है] दो से नौ कोस तकका, संमूछिम भुजपरिसर्प नेवले आदि का धनुष पृथक्त्व दो से नौ धनुष तक, और संमूच्छिम उरपरिसर्प सादिकका योजनपृथक्त्व दो से नो योजन तक में यथायोग्यरूपमें होता है / ऐसी बृहत् अवगाहनावाले जीव प्रायः अढाईद्वीपके बाहर जहाँ मनुष्योंकी तो बसती ही नहीं है, केवल तिर्यच ही वहाँ होते हैं, परंतु मनुष्य क्षेत्रमें तो जीव अल्प अवगाहनावाले होते हैं / [296] अवतरण-प्रस्तुत कथन समूच्छिम गर्भजमें उतारते हैं / गन्भचउप्पय छग्गाउआई भुअगा उ गाउअपुहत्तं / जोअणसहस्समुरगा, मच्छाउभए वि अ सहस्स // 297 // गाथार्थ-गर्भजचतुष्पद हाथी आदिका [देवकुरु-उत्तरकुरुमें ] उत्कृष्ट देहमान छ: कोसका, गर्भज भुजपरिसर्प नेवले आदिका गव्यूतपृथक्त्व [ दो से नौ कोसका ] सर्पअजगरादिक गर्भज उरपरिसोका एक हजार योजनका है [ यहाँ स्थलचर जीवोंका वर्णन पूर्ण हुआ / ] तथा जलचरमें स्वयंभू रमण समुद्रवर्ती संमूच्छिम तथा गर्भज दोनों ___442. किसी किसी स्थान पर (जीवविचारादिककी वृत्तिमें) 'उरगाभूयगा य जोयणपुहुत्तं' पाठसे योजन पृथक्त्व जणाते हैं लेकिन वह घटित नहीं लगता / ___443. प्रायः कहनेका कारण,-अन्तर्मुहूर्त्तके आयुष्यवाले, जन्म होते ही शीघ्र 12 योजन जितनी कायावाले होकर तुरंत मृत्यु पाने पर, पृथ्वीमें बारह योजन जितना बडा गड्ढा पडता है। चक्रीकी-सेना-नगर भी समा जाए, ऐसी जातिके आसालिक सर्प भी जो दोइन्द्रिय ( मतांतरसे तिर्यंच पंचेन्द्रिय ) जातिके हैं, वैसे महाकाय प्राणी उक्त कथनसे अढाईद्वीपमें ( कर्मभूमिमें ही ) भी हो सकते हैं और वे मिथ्याष्टि तथा अन्तर्मुहूर्त्तके आयुष्यवाले होते हैं /