________________ 70 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 14 विभागके अर्ध वलयाकार खण्डके तेरह प्रतर सौधर्मके और उत्तर-विभागके अर्धवलयाकार खण्डके तेरह प्रतर ईशानेन्द्रके जानें / इसी प्रकार सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोकके लिए समझें अर्थात् यहाँ भी दोनों देवलोकके मिलकर बारह प्रतर वलयाकार लेने हैं, इनमें दक्षिण विभागके बारह प्रतरोंके स्वामी सनत्कुमारेन्द्र और उत्तर दिशाके बारह प्रतर माहेन्द्रके समझें / पाँचवें ब्रह्म देवलोकमें खण्ड-विभाग नहीं है अतः वहाँ छह प्रतर वलयाकारमें जानें। इसी तरह लांतकमें पांच, शुक्र देवलोकमें चार प्रतर और सहस्रारमें चार प्रतर वलयाकारमें समझना / आनत और प्राणत देवलोकमें सौधर्म देवलोकवत् दोनोंके मिलकर चार प्रतर वलयाकारमें समझना / ____ आरण और अच्युत इन दोनोंके मिलकर आनत प्राणतवत् चार प्रतर वलयाकारमें जानना / इस तरह बारह देवलोक तकके बावन प्रतर हुए। आगे चलते प्रत्येक प्रैवेयकका एक एक प्रतर गिनने पर नौ ग्रैवेयकके नौ प्रतर होते हैं और पांच अनुत्तर देवलोकका एक ही प्रतर, अतः कुल मिलाकर दस प्रतर पूर्वके बावन प्रतरों में मिलानेसे बासठ प्रतर वैमानिक देवलोकमें जानें / प्रत्येक देवलोकके प्रतरोंका परस्पर अन्तर प्रायः हरएक कल्पमें समान है [ कि सौधर्मसे ईशान कल्पके विमान ऊर्ध्वभागमें किंचित् ऊँचे रहते हैं, इस कारण यहाँ प्रायः कहा है ] परन्तु ऊपर-ऊपरके देवलोकोंमें प्रतरोंकी संख्या कम और विमानोंकी ऊँचाई अधिक होनेसे नीचेके देवलोकके प्रतर सम्बन्धी अन्तरकी अपेक्षा ऊपरके देवलोकके प्रतरका अन्तर अधिक होता है / [14] वैमानिक निकायके प्रतरोंकी संख्याका यंत्रवैमानिक निकायनाम प्रत वैमानिक निकायनाम प्र. सं. 1. सौधर्म 2. ईशान देवलोकमें 3. सनत्कुमार 4. माहेन्द्र 8. सहस्रार देवलोक 9. आनत 10. प्राणत 11. आरण 12. अच्युत 5. ब्रह्म 6. लांतक 7. महाशुक्र 9. ग्रैवेयक , 5. अनुत्तर ,