________________ 332 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 155-156. मिथ्यादृष्टि अर्थात् क्या ? तो मिथ्यात्व मोहनीय नामकी एक प्रकारकी सत्-सच्ची दृष्टिको आच्छादित करनेवाले कर्म विशेषके उदयसे जीवकी दृष्टि-विचारणा-श्रद्धा मिथ्या अर्थात् विपरीत हो जाती है तब उसे 'मिथ्यादृष्टि' कहते है। जिस तरह धतूराका बीज खानेवाला मनुष्य सफेद चीजको भी ज्यों पीली देखता है, उसी तरह मोहनीय कर्मसे आच्छादित दृष्टिवाला मनुष्य जिसमें देवके यथार्थ लक्षण न हो, उसमें देवत्वबुद्धि करता है। जिसमें गुरुके सच्चे लक्षण न हो, उसे गुरुके रूपमें स्वीकारता है। जिसमें धर्मका वास्तविक लक्षण मिलता न हो ऐसे धर्मको धर्मके रूप में स्वीकारता है / यह व्यवहारसे मिथ्यादृष्टिकी स्थूल व्याख्या है। ___ इसका सामान्य फलितार्थ यह हुआ कि-श्री सर्वज्ञ-वीतराग देव कथित जीव-अजीवपुण्य-पापादि तत्त्वोंको यथातथ्य रूपसे या संपूर्ण रूपसे न स्वीकारे, अर्थात् कि जो न्यूनाधिक रूपसे स्वीकारे वह मिथ्यादृष्टि है। वीतरागके हरेक तत्त्वका स्वीकार करे, परन्तु प्रस्तुत गाथामें बताये गये सूत्रोक्त एकाद पद या विषयका भी जो अस्वीकार करे तो वह भी मिथ्यादृष्टि है। विशेष नोंध-ज्यादातर बहुत-सी आत्माएँ अपनी अल्पज्ञताका विचार करती नहीं हैं और सर्वज्ञके वचन कोई वार न समझ सके, अथवा उसकी गहरी विचारणा अथवा उसके तत्त्वज्ञानके गुढ़ रहस्य स्वबुद्धिसे समझ न सके तो वे कईबार उसके यथातथ्य-सत्य वचनों में शंकित बन जाती हैं और आगे बढ़कर यह वस्तु जो सर्वज्ञने कही है वह भी सत् नहीं है ऐसी श्रद्धा कर बैठती हैं। परिणामस्वरूप यह आत्मा सर्वज्ञके ज्ञानकी प्रत्यनीक बन जाती है / एक सर्वज्ञके ज्ञानमें शंका अर्थात् अनन्ता सर्वज्ञोंकी आशातना, क्योंकि सर्वज्ञोंकी अर्थप्ररूपणा समान होती हैं। आजकी बुद्धि अनन्तांश भी नहीं है अतः कोई वस्तु स्वल्पबुद्धिके कारण न समझ सके तो महानुभाव उसे समझनेकी कोशिश करे-प्रयत्नशील रहे। सम्यग्दृष्टि खीलानेका प्रयास करे, परन्तु 'असत् है' ऐसा कभी भी मान न ले / [155) ___ अवतरण-पूर्व गाथामें सूत्रवचनकी असद्हणा (अनादर) नहीं करना चाहिए ऐसा कहा है तो सूत्र अर्थात् क्या ? उन्हें किसके द्वारा रचित हो तो प्रमाणभूत मान जायँ ? यह बताते है। सुत्तं गणहररइयं, तहेव पत्तेयबुद्धरइयं च / सुयकेवलिणा रहयं, अभिन्नदसपुग्विणा रइयं // 156 / / गाथार्थ-जो शास्त्र-ग्रन्थ गणधर भगवन्त रचित, प्रत्येकबुद्ध रचित, श्रुतकेवली रचित और सम्पूर्ण दशपूर्वी रचित है, उसे सूत्र कहा जाता है / // 156 / / विशेषार्थ-गणहर अर्थात् गणधर / गणधर किसे कहते है और यह कौन हो