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________________ * पांच शरीरोंके विवेचन * .269 . है। और लब्धिप्रत्ययिक-वह तपश्चर्यादिक गुणों द्वारा प्राप्त हो सकता है / यह लब्धिप्रत्ययिक शरीर गर्भज मनुष्य, तिर्यंच और कितनेक बादर पर्याप्ता वायुकायके लिए होता है। लब्धिसे उत्तर वैक्रिय करना हो तब अथवा भवप्रत्ययिक वैक्रिय शरीरको उत्तर वैक्रिय रचना हो तव वैक्रिय समुद्घात नामकी एक विशिष्ट क्रिया करनी पड़ती है। और उसके द्वारा तत्प्रायोग्य पुद्गल ग्रहण करनेके बाद ही शरीरकी रचना कर सकते हैं। 3. आहारक शरीर-यह शरीर समग्र भवपर्यत नहीं रहता है। साथ ही इस शरीरको मनुष्य जरूरत पड़ने पर बना भी सकते हैं। मनुष्यमें सभी मनुष्य नहीं, लेकिन चारित्रको लेकर चौदह पूर्वधर, मनःपर्यव आदि ज्ञानको प्राप्त करनेवाले ज्ञानी तथा यथायोग्य लब्धि-शक्ति प्राप्त करनेवाले ही ऐसा शरीर अमुक कारण उपस्थित होने पर बना सकते हैं। इतना जरूरी स्पष्टीकरण करके मूल बात पर आते हैं। चौदह पूर्व जितने विशाल ज्ञानकी प्राप्ति करनेवाले तथाविध लब्धि-शक्तिधारी, श्रुतकेवलीके नामसे प्रसिद्ध मुनिराजों इत्यादिके द्वारा जो आहीयते-गृह्यते अर्थात् ग्रहण किया जाता है अथवा केवलज्ञानीके पास जीवादिक सूक्ष्म पदार्थोंके संदेहोंका समाधान जिस शरीर द्वारा ग्रहण किया जा सकता है, उसे आहारक शरीर कहा जाता है / . इस शरीरको कौन धारण कर सकता है ? तो इसका उत्तर है कि-श्रुतकेवली (चौदह पूर्वधर) भगवंत तथा चौदह पूर्वका अवगाहन तथा तपश्चर्या आदिके द्वारा उत्पन्न आमाँषधि (आमर्ष असहिष्णुता, क्रोध अथवा कोप) आदि लब्धिवाले मुनिवर, मनःपर्यवज्ञानी तथा आहारक लब्धिवाले जंघाचरण तथा विद्याचरण आदि मुनिवरगण इस शरीरको धारण करते हैं। .. आखिर वे क्यों रचते हैं ! तो इसके विषयमें ऐसा बताया गया है कि किसी समय पर द्रव्यानुयोगादिके तात्त्विक चिंतनमें संदेह पडता हो और उसका समाधान स्वयं मिलता न हो, तथा समाधानकी आतुरता और आवश्यकता असाधारण हो, तब उस समाधानकी प्राप्तिके लिए वे इसे रचते हैं। इसके लिए उस समय सेवा-तपश्चर्या के द्वारा अपने आपको आहारक शरीरमें परिवर्तन कर सके ऐसी लब्धि-शक्ति या गुण जिस आत्मामें उत्पन्न हुए हैं, वे इसी शक्ति द्वारा इसे रच सकते हैं। अर्थात् अपने मनसे अपना वीर्य घुमा देते हैं। जल्दीसे आहारक शरीर रच सके ऐसे जगतमें वर्तित पुद्गल स्कंधोंको (समुद्घात नामक आहारक एक विशिष्ट क्रियासे ) ग्रहण करके, अपने एक हाथकी बंद मुट्ठी प्रमाण छोटा-सा शरीर बना लेते हैं / फिर अपने आत्मबलसे वे
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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