________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . ऊपर हम यह जानकर आये हैं कि-जीव अपने-अपने विचारके लिए इन्हीं विचारोंके अनुरूप आकार-प्रकारमें विचित्र रीतिसे प्रतिबिंबित बने गृहीत पुद्गलोंको देखकर वे जो कुछ सोच रहे हैं, इसके साथ साथ भूतकालमें उन्होंने क्या सोचा था और भविष्यमें वे क्या सोचेंगे ? ऐसा ज्ञानके बलसे जो देख सकता है या जान सकता है और दूसरोंको कह भी सके ऐसा जो ज्ञान है इसे मनःपर्यवज्ञान कहा जाता है। जिस प्रकार एक आम आदमी भी दूसरेका मुख तथा आँख आदिके भाव परसे उसके विचारों को समझ सकता है, उसी प्रकार मनःपर्यवज्ञानी मुनिगण भी अक्षरोंकी तरह सजे धजे मनके विचार स्वरूप आकारोंको देखकर, कौन क्या क्या सोच रहे हैं उन्हें जान सकता है। ___ यह ज्ञान दूसरी गतिमें नहीं होता, सिर्फ मनुष्यमें ही मिलता है / मनुष्यमें सातवें गुणस्थानक-अप्रमत्त गुणस्थानक पर विराजमान ऋद्धिप्राप्त दीक्षित बने हुए और निरतिचारपनसे अत्यन्त उच्च चारित्रका पालन करनेवाले सुविशुद्ध परिणामी मुनियोंको ही प्राप्त हो सकता है। यह ज्ञान दो प्रकारका है। 1. जुमति और 2. विपुलमति / जिसमें अंतर (हृदय )की शुद्धि कुछ कम ( न्यून ) होती है उसे 'ऋजुमति मनःपर्यव' और जिसमें विशुद्धि इससे अधिक होती है उसे 'विपुलमति मनःपर्यव' प्राप्त होता है। इस प्रकार ऋजुमति जब विचारोंको तथा उनकी अवस्थाओंको मर्यादित रूपमें जानते हैं, तब विपुलमति उनसे भी अधिक रूपमें जानते हैं। आगे यही बात कही जायेगी। __ऋजुमति-यहाँ पर ऋजुका अर्थ सरल न समझते हुए सामान्य समझना है और मतिका अर्थ मनन-चितन अथवा संवेदन करता है। अर्थात् सामान्य विचार प्राहिणी शक्ति वह ऋजुमति है। इसका ज्ञानप्राप्तमुनि द्रव्यगत प्रवर्तमान आकारोंको देखकर, अमुक मनुप्यने जो घट (पानी भरनेका पात्र ) दिखाया है, वह अमुक रंगका है अथवा अमुक प्रकारका सोचता है ऐसी वस्तु अथवा वस्तुकी अल्प अवस्था मात्रसे जान सकते हैं / विपुलमति-शब्दसे ही अर्थ स्पष्ट हो जाता है / ( विस्तृत ) विपुल विचार प्राहिणी शक्ति वह विपुलमति है। यह मति ऋजुमतिसे अधिक उच्चतर है। ऋजुमति-ज्ञानीने जिस घटके बारेमें तथा उसकी विशेषताओंके बारेमें जो कुछ भी जाना है, उसी घटके बारेमें विपुलमति ज्ञानी अधिक रूपमें जान सकते हैं, अर्थात् सामनेवाले मनुष्यने घटको 640. प्रतिपात तथा अप्रतिपात अवस्थाओंके कारण संजम-चारित्रका परिणामके दो भेद पड़ते हैं /