________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . ___ अब ग्रन्थकार सिर्फ छठे तथा सातवें नारकीय जीवों में समय-समय पर कितने रोग होते हैं ? इसे लिखते हुए यह बताते हैं कि वे लोग पाँच करोड़ अडसठ लाख, निन्यान वे हजार, पाँच सौ और चौरासी५५ (5,68,99,284 ) जितने रोगों से .. संवृत्त होकर महादुःख एवं यातना को भुगतते रहते हैं / [209] (क्षेपक गाथा-४८). . // नरकगति विषयक द्वितीय भवनद्वार // ... अवतरण-प्रथम स्थितिद्वार कहने के बाद अब नरकगति के अधिकार में द्वितीय भवन द्वार शुरु करते हैं / इस में सबसे पहले सातों नारकी के नामों के गोत्र बताते हैं / हरेक नारक अपने गोत्र के नाम से ही पहचाना जाता है। रयणप्पह सकरपह, वालुअपह, पंकपह य धूमपहा / तमपहा तमतमपहा, कमेण पुढवीण गोत्ताई // 210 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 210 // विशेषार्थ-द्वितीय भवनद्वार शुरु करने से पहले हम नारकी के 'गोत्रो 360 बताते हैं। प्रथम नारकी का नाम--१ रत्नप्रभा, 2 शर्कराप्रभा, 3 वालुकाप्रभा, 4 पंकप्रभा, 5 धूमप्रभा, 6 तमःप्रभा और 7 तमस्तमःप्रभा / ये सभी नाम सान्वय-सान्वर्थ हैं / 1 रत्नप्रभा-अर्थात् वज्रादि रत्नरूप धरती अथवा रत्न की प्रभा-बाहुल्य ( बहुतायत् ) जिस में है ऐसी पृथ्वी, इस प्रकार दोनों अर्थ हो सकते हैं / इसी कारण से उसे रत्नरूप-रत्नमयी अथवा रत्नबहुल कहा जाता है / ३५९-वर्तमान वैज्ञानिक दुनिया में देखे या सुने जाते इन चित्रविचित्र नये-नये रोगों के आगे यह बात जग भी आश्चर्यजनक लगती नहीं है / "शरीर रोग मंदिरम्" ऐसा जो सूत्र कहा गया है यह सार्थक ही है / बहुत से रोग पहले से ही विद्यमान ही हैं; लेकिन निमित्त ( कारण ) मिलते ही उसका प्रादुर्भाव होने लगता है / नरक में तो बहुत से अशुभ निमित्त उपस्थित ( हाजिर ) होते ही हैं अतः वहाँ दुःखों का अंतिम साम्राज्य प्रवर्तमान होने के कारण यह सब संभवित है। ३६०-गावस्त्रायन्ते इति गोत्राणि /