________________ सूर्य तथा चन्द्रका मण्डल ] गाथा 83-85 [ 193 दर्शाया है। प्र० गा० सं० (17-18-19) [83-84-85] // इति प्रस्तुत द्वितीय भवनद्वारे तृतीयज्योतिषीनिकायाधिकारः, प्रासङ्गिक द्वीपसमुद्राधिकारः तेषु चन्द्र, सूर्य ग्रह-नक्षत्रपंक्तिसंख्याधिकारश्च समाप्तः // para conococavaca 3 // चन्द्र-सूर्यमण्डलाधिकार // अवतरण-पहले ( अलग अलग आचार्योके मतानुसार) क्षेपक तीन गाथाओंसे प्रसिद्ध आचार्यका मतांतर, (तारे पंक्तिबद्ध न होकर उन्हें वर्जित करके ) चन्द्र-सूर्य-ग्रह तथा नक्षत्रपंक्ति विषयक सर्व विचारणा, और चन्द्रादि पाँचों ज्योतिषीकी सर्व प्रकारकी संख्या लानेके सम्बन्धमें 'करणादि' उपाय बतलाकर अधिकार समाप्त किया है। ___अब उन चन्द्र-सूर्योंके मण्डल (परिभ्रमण) विषयक वर्णन आरम्भ किया जाता है ___ उनमें पाँचों ज्योतिषीमेंसे चन्द्र-सूर्य और ग्रहके चार मण्डल हैं। और वे चन्द्रसूर्यादि, अनवस्थित मण्डलसे परिभ्रमण करते हुए मेरुकी प्रदक्षिणा कर रहे हैं / नक्षत्रों तथा तारोंके मण्डल हैं, किन्तु वे चर होने पर भी स्वस्व मण्डलों में स्थानमें ही गति करते होनेसे अवस्थित मण्डलवाले हैं। इन पाँचों प्रकारके ज्योतिषीयोंके मण्डलोंमेंसे नक्षत्र होगा, अगर उस भङ्गको बाजूमें रखकर प्रति-द्वीप-समुद्रके आदि और अन्तक्षेत्र तकमें रहे हुए चन्द्र-सूर्यकी अंतर प्रमाणादि व्यवस्था उस विशेष क्षेत्राश्रयी ही सोचें तो अंतरादि प्रमाणकी नियमितता रहनेमें प्रायः दोष उत्पन्न न हो; परन्तु प्रथम तो त्रिगुणमतसे आगे आगे आती बृहत् संख्याका समावेश किस तरह करे यही सोचनेका है / विशेषमें प्रसिद्ध मतकारकी वलयपंक्ति जितनी बुद्धि-युक्तिगम्य और नियमित रहती है वैसा इसमें नहीं रहता है। विशेष तत्त्वज्ञानी ही जाने / चालू विषयके बारेमें शक्ति अनुसार अलग अलग तरहसे सोचना आवश्यक लगनेसे सिर्फ इस विषयके बारेमें भिन्न भिन्न प्रफारसे विचार मात्र दर्शाये हैं / उनमें अन्तिम पक्ष शास्त्रीय होनेसे योग्य लगता है / प्रथमके तीन पक्ष तो विचार करनेके लिए ही दिये गए हैं, फिर भी उन विचारोंमें भी शास्त्रीय विरोधविरुद्धत्व दिखायी दे तो त्रिविध त्रिविध रूपमें मिथ्यादुष्कृत् देकर इस विषयको यहाँ ही पूर्ण करते हैं / इस सारी विचारणाको बाह्य पुष्करार्धके लिए तो स्थान मिल गया, लेकिन आगे आगेके द्वीप समुद्रोंमें किस तरह संगत करना वह ज्ञानीगम्य है। वृ. सं. 25