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________________ 156 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 76-77 जलमय बना देती / परंतु समुद्र मर्यादाका उल्लंघन करता ही नहीं है, जिससे नगरादि स्थल वगैरह जलमय नहीं हो सकते, यह उसका अनादिसिद्ध स्वभाव है / इस कलशका वायु जब शान्त होता है तब जलवृद्धि और दूरवर्ती गया छिछला (उछला) जल, क्रमशः घटता हुआ स्वस्थान पर आ जाता है / यह जलवृद्धि हररोज दिनमें दो बार होती है, उसमें भी अनुक्रमसे अष्टमी-चतुर्दशी और पूर्णिमा आदि दिनों में तो वह वायु स्वाभाविकरूपसे अत्यन्त-विशेष क्षुब्ध होता है, अतः जलवृद्धि उन दिनोंमें बहुत प्रबल होती है / इस तरह पातालकलशमें रहे वायुके क्षोभसे सोलह हजार योजन ऊँची लवणसमुद्रकी जलशिखाके ऊपर दो कोस ऊँची जलकी वेलका बढ़ना और उसके परिणामस्वरूप लवणसमुद्रके हरएक विभागमें तरंगों-लहरोंके साथ पानीका जंबूधातकीकी जगतीकी ओर बढ़ना 'ज्वार' कहा जाता है और उसके शांत होने पर 'भाटा' १७५कहा जाता है। .. प्रश्न-लवणसमुद्र में होते ज्वार-भाटाके साथ यहाँ के समुद्रका क्या सम्बन्ध है ? उत्तर-यहाँ जो समुद्र हम देखते हैं उसे हम अपनी स्थूल दृष्टिसे एक अथाह समुद्र जरुर कह सकते हैं लेकिन लवणसमुद्रकी अपेक्षासे बड़ा दिखाई देनेवाला यह समुद्र तो एक खाडी मात्र है / क्योंकि यह समुद्र उसी लवणसमुद्रकी ही नहर रूपमें आया है, ऐसा नीचेकी हकीकत साबित करती है / असंख्य वर्ष पहले हो गए सगर नामके चक्रवर्तीने सौराष्ट्र (काठियावार )में वर्तित श्री शQजयपर्वत पर रहे मणिरत्नमय जिनबिबोंका-कलिकालके जीवोंकी बढ़ती हुई लोभवृत्तिके कारण-रक्षण करनेके लिए इस शाश्वत और महापवित्र पहाड़की चारों ओर मैं समुद्र रक्खू / जिससे इन रत्नमयबिंबोंका भविष्यमें लोभासक्त होनेवाले पंचमकालके जीवोंसे रक्षण मिल सके, इसी भावनासे लवणसमुद्रके अधिष्ठायक सुस्थित देवका आराधन करके, लवणसमुद्रके जलको श→जयपर्वतकी चारों ओर रखनेके लिए उस देवसे फरमान किया, आज्ञावश हुए देवने जंबूद्वीपके पश्चिमद्वारसे लवणसमुद्रका जल घुमाया, और ठेठ हालमें शत्रुजय-पालीतानाके पास आए तालध्वज पर्वत (गाँव-तलाजा) तक लाए, इतने में इन्द्रमहाराजने भरतमें वर्तित भावोंका निरीक्षण करनेका उपयोग रक्खा, इसे रखते ही इस अनिच्छनीय घटनाको देखकर तुरन्त ही स्वर्गमेंसे पृथ्वी पर आकर उस चक्रवर्तीको उद्देश्य कहा, कि हे सगर ! कलिकालमें होनेवाले जीवोंके लिए श्रीसिद्धाचलतीर्थ इस संसारसमुद्रमेंसे __175. यदि केवल चन्द्रकलाकी हानि-वृद्धि के लिए ही ज्वार-भाटा होता हो तो चन्द्रकलासे बिलकुल रहित अमावसकी रात्रिको ज्वारका प्रभाण क्यों अधिक होता है ? और अक्षयतृतीया आदि ज्वारके दिनोंमें चन्द्रकलाकी वृद्धिका कारण कहाँ रहा ? और दिनमें भी ज्वार-भाटा होता है तो उस समय चन्द्रकला तो दीखती ही नहीं है तो उसका क्या कारण ? आदि विचारणीय है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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