SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 378
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 378 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 192-194 आदर्श बतलानेके लिए उच्चतम, अहिंसा, उग्र तप-संयमका सेवन करते हुए, उपस्थित अनेक उपद्रवोंको समभावसे वेदते चार घातीकर्मका क्षय करके, वीतरागपन प्राप्त करके तेरहवें गुणस्थानक पर जब केवलज्ञानी बनते हैं तब उसी केवलज्ञान कल्याणककी महिमाको गानेमनानेके लिए देव यहाँ आते हैं। केवलज्ञानी तीर्थकर अपनी पैंतीस गुणयुक्त प्रभावित वाणी द्वारा विश्वके प्राणियोंको सच्चा मुक्ति-सुखका मार्ग दिखलाकर, अनेकोंका कल्याण करके या करवाके उसके द्वारा ही अपने बाकी (शेष) बचे चार भवोपग्राही कर्मोंका क्षय करके निराबाधरूपसे जब मोक्ष पाते हैं, उस समय उन महानुभाव परमात्माके मोक्ष कल्याणकको मनाने देव यहाँ आते हैं। इस प्रकार च्यवन (गर्भ)-जन्म-दीक्षा-ज्ञान और मोक्ष इन्हीं पाँचों कल्याणकोंको मनानेके लिए देव मनुष्यलोकमें आते हैं। इसके अतिरिक्त किसी महर्षि के महान् तपके प्रभावसे आकर्षित होकर उनका माहात्म्य बढ़ानेके लिए अथवा वन्दन-नमस्कारादिकके लिए, साथ ही जन्मांतरके स्नेहादिकके कारण अर्थात् मनुष्यादिककी स्त्री पर किसी रागवश अथवा द्वेषबुद्धिसे प्रेरित (संगमादिक जिस प्रकार आये थे वैसे ) इहलोकमें (इसी धरती पर) आना पड़ता है। इस तरह पूर्वभवके किसी स्नेहके बन्धनसे ग्रस्त बने देव अपने किसी मित्रके सुखके लिए अथवा तो किसी दुश्मनके दुःखके लिए नरकमें भी जाते हैं। [192] अवतरण-अब किन-किन कारणोंसे देव मनुष्यलोकमें आते नहीं हैं ? इसे बताते हैं। संकंतदिव्वपेमा, विसयपसत्ताऽसमत्तकत्तब्वा / अणहीणमणुअकज्जा, नरभवमसुहं न इंति सुरा // 193 / / चत्तारि पंचजोयण, सयाई गंधो य मणुअलोगस्स | . उड्दं वच्चइ जेणं, न उ देवा तेण आवन्ति / / 194 / / गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 193-194 / / विशेषार्थ-जब देवलोकमें देव उत्पन्न होते हैं तब देवलोकवर्ती अत्यन्त सुन्दर देवांगनाओंमें नवीन-दिव्य प्रेम संक्रान्त (प्रवेश भावयुक्त) बनता है। अति मनोहर देवियोंके सुन्दर शब्द-रूप-रस-गन्ध तथा स्पर्शके विषय अति सुखकर और मनोज्ञ होनेसे देव उनमें अत्यन्त आसक्त बनते हैं, अतः इच्छा मात्रसे ही स्वर्ग सम्बन्धी अत्यन्त सुन्दर रूप-रसगन्ध-स्पर्श तथा शब्दोंमें उत्पन्न होनेके साथ ही प्रसक्त होते हैं / इसीलिए जिनका स्वकर्तव्य समाप्त नहीं हुआ अर्थात् उन्हें वहाँ ऐसा विषयादिक सुख मिलता है कि स्नान करके तैयार हो जायँ इतनेमें ही नाटकप्रेक्षणादिका मन होता है और यह सुख पूर्ण हुआ न हुआ
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy