________________ किन कारणोंसे देव मनुष्यलोकमें आते हैं ? ] गाथा-१९२ [ 377 स्पर्श न करके चार अंगुल ऊँचे रहनेवाले, महान् संपत्ति, सौभाग्य सुखको धारण करनेवाले (अर्धमागधी भाषा बोलनेवाले ) देव हैं ऐसा जिनेश्वर कहते हैं। | 191 ] अवतरण-देव किन कारणोंसे लेकर मनुष्यलोकमें आते हैं ? इसे बताते हैं / पंचसु ज्जिणकल्लाणे-सु, चेव महरिसितवाणुभावाओ / जम्मतरनेहेण य, आगच्छंती सुरा इहई // 192 / / गाथार्थ-जिनेश्वर देवोंके पाँचों कल्याणकोंमें, महर्षियोंके तपके प्रभावसे आकर्षित होकर तथा जन्मान्तरके कारण शेष किसी स्नेहवश देव यहाँ (आलोकमें ) आते हैं / // 192 // विशेषार्थ तद्भवमें तीर्थंकर परमात्मारूप होनेवाली व्यक्ति जब देवलोकादिक गतिमेंसे भरतादिक कर्मभूमिमें च्यवकर प्रकर्ष पुण्यशाली माताकी कुक्षिमें गर्भरूप उत्पन्न होती हैं, तब महानुभाव परमात्माका जीव जगज्जंतुके कल्याणार्थक मनुष्यलोकमें उत्पन्न हुआ है ऐसा अपने अवधिज्ञानसे जानकर देवगण उनका च्यवन कल्याणकका महोत्सव मनाते हैं। पुण्यात्माके गर्भके प्रभावसे माताको गर्भवेदना, उदरवृद्धि, जन्मादिक काल पर अशुचिपन आदि कुछ भी होता नहीं है। ___ अनुक्रम पर गर्भका यथायोग्य समय होते ही परमात्माका (अवधिज्ञानपूर्वक) जनम होता है, जो समग्र विश्वको तारकरूप होनेसे नारकीको भी क्षणके लिए सुखका कारणरूप बनता है। परमात्माका जनम होते ही सर्वत्र आनन्द तथा मंगल होता है / इस प्रसंग * पर इन्द्रादिक देव सुघोषा घण्ट द्वारा सभी देवोंको खबर (सँदेसा) करते हैं, तब सभी देव इकट्ठे होकर अपने-अपने विमान द्वारा इसी लोकमें जन्मगृह पर आकर, अपनी विद्याबलसे प्रभुके प्रतिबिंबको उनकी माताके पास रखकर, मूल शरीरको स्वयं ही ग्रहण करके अपना ही पंचरूप करनेपूर्वक मेरुपर्वत पर जाकर अभिषेकादि महाक्रियाएँ करते हैं / इस प्रकार देव-देवियाँ अनेक प्रकारसे और बड़ी धूमधाम (ठाट-बाट )से प्रभुके जन्मकल्याणकको मनाते हैं। ___ अनुक्रमानुसार वृद्धि पाते-पाते प्रभु अपने भोगावली कर्मक्षय पूर्ण होते ही, शाश्वत नियमानुसार लोकान्तिक देवोंके आचार पालन निमित्त जय जय शब्दरूप तीर्थप्रवर्तन करनेकी सूचना मिलते ही जगतको एक साल तक प्रचुर (बहुत, विपुल) मात्रामें धनादिकका दान देकर दारिद्रय दूर करके, जब दीक्षा लेनेके लिए तैयार होते हैं तब भी दीक्षाकल्याणक महोत्सवको मनानेके लिए सभी देव यहाँ आते हैं। इस प्रकार दीक्षा ग्रहण करनेके बाद सिर्फ जगत्जंतुके कल्याणार्थक शुद्ध मुक्तिमार्गका अ. सं. 48