________________ .106. ग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . जीव समय समय पर सिद्ध होते जायँ तो छः समय तक मोक्षमें जायँ, फिर समयादिकका अंतर अवश्य पड़ता है, 61 से 72 तककी संख्या सिद्ध होती जाए तो पांच समय यावत् पुनः समयादिकका अंतर, 73 से लेकर 84 तककी संख्या चार समय यावत् .. सतत सिद्ध हो, फिर अंतर पड़ता है, 85 से 96 तककी संख्या तीन समय यावत् पुनः अंतर, 97 से 102 तककी संख्या दो समय यावत् पुनः अंतर पड़ता है, और 103 से आरंभ करके 108 तककी संख्या सिद्ध हो तो एक ही समयमें सिद्ध हो / फिर दूसरे ही समयसे समयादिकका अंतर अवश्य पडे ही / आठ समय सिद्ध प्रकारमें दूसरे दो प्रकारान्तर भी हैं। इन्हें श्री स्थानांगसूत्रवृत्ति और संग्रहणीकी मलयगिरि टीकासे जान लें / [ 278-279 ] अवतरण-अब ये जीव सिद्ध तो होते हैं लेकिन वह सिद्ध स्थान कैसा, कितना और कहाँ है ? यह भी कहते हैं, क्योंकि सांख्यमतानुयायी ऐसा मानते हैं कि 'मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति, व्योमवत् तापवर्जिताः' अर्थात् संसारके तापसे रहित ऐसी मुक्तात्माएँ आकाशकी तरह सर्वत्र रहती हैं / अतः उस एकांगी मतका निराकरण करनेके लिए : मुक्तात्माके विशिष्ट क्षेत्र प्रमाणको कहते हैं / पणयाललक्खजोयण-विक्खंभा सिद्धसिल फलिहविमला / तदुवरिंग जोअणते, लोगतो तत्थ सिद्धट्टिई // 280 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 280 // विशेषार्थ-वैमानिक निकायके अंतिम अनुत्तर के मध्यवर्ती सर्वार्थसिद्ध नामके महाविमानसे ऊपर बारह योजन जाने पर वहाँ ही 45 लाख योजनके विष्कम्भवाली, (वृत्त होनेसे आयाम भी उतना ही) स्फटिक समान निर्मल, ईषत्प्रागभारा नामकी सिद्धशिला आई हैं / इस शिलासे ऊपर उत्सेधांगुल प्रमाणवाले एक योजनके अंतमें लोकका अंत आता है, वहाँ तक सिद्ध के जीवोंकी स्थिति-अवगाहना है / / _ विशेषतः ये जीव लोकके अंतभागमें स्पर्शकर रहे हैं, उन जीवोंका कभी पुनरागमन नहीं होता / यह शिला सिद्ध भूमि, ईषत्प्रागभारा आदि बारह नामोंसे परिचित श्वेत, सुवर्णमय और कुछ पीतवर्ण संयुक्त, ऊर्ध्व ( सीधा ) छत्रके आकारमें संस्थित, घीसे भरे कटोरेके समान, प्राण-भूत-जीव-सत्त्वोंको सुख देनेवाली तथा हिम-गौक्षीर जैसी उज्ज्वल है / अन्य आचार्य सर्वार्थसिद्ध विमानसे बारह योजन दूर (सिद्धशिला नहीं लेकिन ) लोकका अन्त है, ऐसा कहते हैं / तत्त्व केवली जाने / [ 280 ]