________________ सूर्य-चन्द्र सम्बन्धमें समज ] गाथा 78-79 [ 163 ऽन्यथा स्यान् तत आचार्यान्तरैरिव तत्प्रतिपत्तये करणान्तरमप्यभिहितं स्यात् , न चाभिहितं, ततो निश्चीयते सर्वद्वीपोदधिष्विदमेव करणमनुसतव्यमिति, केवलं मनुष्यक्षेत्राबहिश्चन्द्रार्काः कथं व्यवस्थिता इति चन्द्रप्रज्ञप्त्यादौ नोक्तम् ? ' इत्यादि / ___ अर्थ-" मूल संग्रहणी तथा क्षेत्रसमासमें समनश्रुतमहोदधि श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणजीने सर्व द्वीप-समुद्र में चन्द्र-सूर्यकी संख्या बतानेवाला यह 'त्रिगुणकरण' ही कहा है। यदि मनुष्यक्षेत्रसे बाहरके द्वीप-समुद्रोंमें चन्द्र-सूर्यकी संख्या दूसरी तरह होती तो जैसे दूसरे आचार्योने कहा है वैसे उस संख्याको बतानेवाला (त्रिगुणकरणके सिवा ) दूसरा कोई करण भी बताया होता और कहा तो नहीं है; अतः निश्चय होता है कि सर्व द्वीप-समुद्रोंमें चन्द्र-सूर्यकी संख्या जाननेके लिए यह त्रिगुणकरण ही समझना है। सिर्फ मनुष्यक्षेत्रके बाहर चन्द्र-सूर्योकी व्यवस्था किस प्रकार है ? यह चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थों में नहीं कहा है।" ___ साथ ही श्रीमान् मलयगिरिमहाराजने और चन्द्रीया टीकाकार महर्षि ने श्री चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति और जीवाभिगम प्रमुख सूत्रों के आधार पर पूर्वोक्त उल्लेख किया हो ऐसा स्पष्ट समझमें आता है; क्योंकि श्री गौतममहाराजने भगवान महावीरदेवसे पूछे प्रभोंके उनसे मिले उत्तरों में पुष्करवरद्वीपमें 144-144 चन्द्र-सूर्यकी संख्या बताई है / यह विषय श्रीजीवाभिगमसूत्रमें सुविस्तृत रूपसे बताई है। पूर्वोक्त 144-144 चन्द्र-सूर्यकी संख्या 'त्रिगुणकरण 'से गिनती की जाए तो ही प्राप्त होती है / श्री चन्द्रप्रज्ञप्तिमें बताया है कि 'चोआलं चन्दसयं चोआलं चेव सूरिआण सयं / पुक्खरवरंमि दीवे चरंति ए ए पभासेंता // 1 // ' अर्थात् पुष्करद्वीपमें 144-144 चन्द्र-सूर्य होते हैं / श्री ज्योतिषकरंडकमें भी कहा है कि-'धायइसंडप्पभिई उहिट्ठा तिगुणिआ भवे चन्दा / आइल्लचन्दसहिआ तइ हुंति अणंतरं परतो // 1 // आइच्चाणं पि भवे एसेव विहि अणुणगो सव्वो / दीवेसु समुद्देसु य एमेव परंपरं जाण // 1 // ' अर्थात् उन्हें भी सर्व द्वीप-समुद्रोंमें यह 'त्रिगुणकरण' ही मान्य हैं / विशेषमें श्रीसंग्रहणी ग्रन्थके प्राचीन टीकाकार श्री हरिभद्रसूरिजी भी ‘एवं अणंतराणंतरे खित्ते पुक्खरदीवे चोआलं चंदसयं हवइ' इस पंक्तिकी साक्षीसे पुष्करवरद्वीपमें 144-144 चन्द्र-सूर्यका ग्रहण जणाते हैं / ऐसे सिद्धांतोके स्पष्ट पाठोंसे और उसके ही आधार पर किये उक्त उल्लेखोंसे सिद्ध होता है कि "मनुष्यक्षेत्रके बाहर चन्द्र-सूर्यकी व्यवस्था किस प्रकारकी हो ? उस विषयको ज्ञानी गम्य जणाकर यह 'त्रिगुणकरण' सर्व द्वीप-समुद्रोंको लागू हो सकता है।" साथ ही जिस जिस विषयके लिए जो जो करण दिए जाते हैं प्रायः उस उस विषयके लिए वे एकदेशीय नहीं होते, किंतु सर्वदेशीय-सर्वव्यापक होते हैं। अब इस मनुष्यक्षेत्रमें वर्तित सूर्य-चन्द्रादि चर ज्योतिषी विमानोंकी व्यवस्थाके संबंध