________________ . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . मेहनं खरता दाढयं शोण्डीर्य श्मश्रु धृष्टता / स्त्रीकामितेति लिङ्गानि, सप्तपुंस्त्वे प्रचक्षते // अर्थ-पुरुषका गुप्त लिंग-चिह्न, कठोरता, दृढता-मक्कमता, पराक्रम, दाढी, धृष्टता और स्त्री संसर्ग की कामना ये सात पुरुषवेद के लक्षण हैं। योनिर्मदुत्वमस्थैर्य मुग्धता क्लीबतास्तनौ, पुस्कामितेति लिङ्गानि सप्तस्त्रीत्वे प्रचक्षते // अर्थ—गुप्तांग चिह्न-योनि, कोमलता, चपलता, मुग्धता ( भोलापन), सामर्थ्यहीनता, स्तन का सद्भाव और पुरुष संसर्गकी कामना-ये सात स्त्रीत्व-स्त्रीवेदके लक्षण हैं / स्तनादि-श्मश्रुकेशादिभावाऽभावसमन्वितम् / . नपुंसकं बुधाः प्राहुर्मोहानलसुदीपितम् // . अर्थ-स्तन आदि स्त्री योग्य चिह्न, पुरुष योग्य दाढी-केश आदि चिह्न हों अथवा न भी हों अर्थात् पुरुष-स्त्री दोनों के संमिश्र लक्षण न्यूनाधिक अंशमें विद्यमान हों और उभय लिंग के संसर्ग की इच्छा का मोहाग्नि अत्यन्त प्रदीप्त रहता हो, उसे सुज्ञो०८ नपुंसक कहते हैं। इस तरह तीनों वेद के लक्षण कहे / इन वेदों का चारों गति में यथाविध अस्तित्त्व है, अर्थात् देवों में मात्र पुरुष-स्त्री दो ही वेद हैं, नपुंसकवेदी वहाँ कोई नहीं हैं। सातों नरको और तमाम संमूछिमें जीवो मात्र एक नपुंसकवेदवाले हैं। अवशिष्ट मनुष्य तथा तिर्यंच दो गति के शेष मनुष्यों तथा तिर्यचों में तीनों वेद होते हैं। [ 272 ] 405. यहाँ दाढी का उल्लेख किया 'मूंछ' चिह्न नहीं लिया गया, यह वास्तविक भी है, क्योंकि अल्प मूंछवाली स्त्रियाँ हो सकती हैं लेकिन दाढीवाली स्त्रियाँ (प्रायः) नहीं मिल पाती / 406. क्लीबता इति पाठः विशेषोचितः अन्येषु कोषेषु वान्तपाठदर्शनात् क्लीबोऽपौरुषषण्ढयोः ( अने० संग्रहे 2/532 ) यह सामर्थ्यहीनअविक्रम अर्थमें प्रयुक्त हुआ है। 407. स्तनकेशवतीस्त्री स्याद् रोमशः पुरुषः स्मृतः / उभयोरन्तरं कच, तदभावे नपुंसकम् // (स्थानांगवृत्ति) 408. महिलासहावो सरवन्न मेओ, मोहो महंतो महुया य वाणी / ससद्दयं मुत्तमफेणय च, एयाणि छ पंडगलक्खणाणि // (रत्नसंचय) / 409. अन्य भेद भी हैं उन्हें लोकप्रकाश, विशेषावश्यक भाष्यादिकसे जानें // 410. कतिपय संमूछिम पंचेन्द्रियों को पुरुष-स्त्रीचिह्न सद्भाव कर्मग्रन्थ तथा सप्ततिका भाष्य में कहा है।