________________ 302 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 127-128 सकेगा ? अतः इस गाथाको ओघसे राजमाप महत्तासूचक समझना / प्रथमावृत्तिमें दी है इसलिए रद नहीं की है। जोयणलक्खपमाणं, निमेसमित्तेण जाइ जे देवा / छम्मासेण य गमणं, एगं रज्जु जिणा विति // 127 / / [प्र. गा. सं. 36] गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 127 // विशेषार्थ-यदि कोई एक देव पलकमात्रमें एक लाख योजनका प्रयाण करे तो वे छः मासमें एक राजका मार्ग-प्रमाणको पार कर सकते हैं, ऐसा श्री सर्वदर्शी जिनेश्वरदेवोंने कहा है। रत्नसंचयादि ग्रन्थों में एक राज प्रमाणका चित्रण देते हुए यह बताया गया है कि कोई एक महर्द्धिकदेव अतिशय तपित (गर्म) ऐसे एक हजार मन वजनवाले लोहेके ठोस गोलेको मनुष्यलोकमें पहुँचानेकी इच्छासे ऊपरसे एकाएक प्रबल जोरसे फेंके, तब वह गोला चंडागतिके प्रमाणसे नीचेकी ओर आगे घुसता-घुसता छः मास-छः दिन-छः पल जितने काल-समयमें एक राजप्रमाण आकाश पार कर सकता है / इस दृष्टांतसे 'राजप्रमाण 'की : महत्ताकी कल्पना कर ले / जैसे एक बालक पूछे कि 'सागर कितना बड़ा होता है ? तब हम, जिस तरह अपने दोनों हाथोंको चौड़ा करके बताते हैं कि 'इतना बडा....' / इस तरह सागरके असीम मापको (नापको) हम जिस प्रकार दो हाथों में समाकर बालक-बुद्धिको सन्तोष देते है, उसी प्रकार यहाँ व्यवहारके लिए उपरोक्त दृष्टांत दिया है, अतः उसे वास्तविक न समझें, क्योंकि उसी तरह तो संख्यात योजन ही होता है परन्तु असंख्यात होता ही नहीं है / / 127] (प्र. गा. सं. 36) अवतरण-अब आदि और अन्तिम प्रतरवर्ती इन्द्रकविमानका प्रमाण कहते हैं / पढमपयरम्मि पढमे, कप्पे उडुनाम इंदयविमाणं / पणयाललक्ख जोयण, लक्खं सव्वुवरिसव्वटुं / / 128 / / गाथार्थ-वैमानिक निकायके प्रथम सौधर्मकल्पके प्रथम प्रतरमें 'उडु' नामक इन्द्रकविमान पैंतालीस लाख योजनका वृत्त अर्थात् गोलाकारयुक्त है और सबसे ऊपर बासठवें प्रतरमें अनुत्तरकल्पमें एक लाख योजन प्रमाणका गोलाकार 'सर्वार्थसिद्ध' नामक विमान आया है / / 128 // __विशेषार्थ-सर्वार्थसिद्धविमानके देवोंको 'लवसत्तमीया' कहकर पहचाने जाते हैं, क्योंकि अबद्धायुष्क उपशम श्रेणीमें चढे हुए उन देवोंको पूर्वभवमें किए गये तपमें