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________________ मण्डलोंकी अबाधा, मण्डलचार और अर्धमण्डल संस्थिति ] गाथा 86-90 [ 227 योजन और 35 भाग जितनी अबाधाकी हानि होती है, अतः 1833 मण्डलमें सूर्य-सूर्यका परस्पर अबाधा-अन्तर (मेरुव्याघात सह-१००६६० उसमेंसे कम 5 योजन 35 भाग) 100654 योजन और 26 भाग जितना हो, इस तरह ज्यों ज्यों सूर्य अन्दरके मण्डलों में प्रवेश करते जाए त्यों त्यों प्रतिमण्डल '5 योजन 35 भाग' अबाधा कम करते जाने पर और स्वस्वमण्डल योग्य इच्छित मण्डल प्रमाणको प्राप्त करते हुए जब दोनों सूर्य पुनः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें प्रवेश करके विरुद्ध दिशागत आवे तब दोनों सूर्योंकी पूर्वोक्त-९९६४० योजन प्रमाण जो अबाधा दर्शाई थी वह पुनः बराबर आ जाती है / // इति मण्डले-मण्डले सूर्ययोः परस्परमबाधानिरूपणम् // तस्मिन् समाप्ते च मण्डलाबाधा प्ररूपणाऽऽख्यं चतुर्थ द्वारं समाप्तम् // [एक दूसरे मण्डलके बिचकी अन्तरप्ररूपणा–सूर्यके मण्डलोंका परस्पर अन्तर प्रमाण दो योजन है / उसे युक्तिपूर्वक लाना हो तो सूर्यके विमान प्रमाण लाता सूर्यमण्डलका 16 भाग प्रमाण जो विस्तार उसे सर्वमण्डलोंका कुल विस्तार प्रमाण लानेके लिए 184 से गुना करे तब 144. योजन 6 भाग केवल सूर्यमण्डलोंका कुल विस्तार आवे, इस विस्तारको सूर्यमण्डलके 510 योजन 16 भाग प्रमाण चारक्षेत्रमेंसे कम करने पर 366 योजन अवशिष्ट रहे, यह केवल अन्तर क्षेत्रप्रमाण सूर्यके 183 मण्डलोंका आया प्रत्येक मण्डलका अन्तर प्रमाण लाने के लिए १८३से बटा करे तो 2 योजन प्रमाण अन्तर प्रत्येक मण्डलका जो कहा. वह आ जाएगा / ] - [सूचना-पूर्व बताए अनुसार पांच द्वारों मेंसे चार द्वारोंका वर्णन किया / अब पांचवाँ चर अथवा गति-द्वारप्ररूपणा कही जाती है / यह प्ररूपणा प्राज्ञपुरुषोंके कथनानुसार सात द्वारोंसे की जाती है / इनमें प्रथम सुगमताके लिए सूर्योदय विधिके साथ अर्धमण्डल संस्थिति, २–प्रतिवर्ष सूर्यमण्डलोंकी गतिकी संख्या प्ररूपणा, ३-संवत्सरके प्रत्येक दिवस तथा रात्रिके प्रमाणकी प्ररूपणा, ४–प्रतिमण्डलमें क्षेत्र विभागानुसार रात्रि-दिवस प्ररूपणा, ५-प्रतिमण्डलोंका परिक्षेप-परिधि, ६–प्रतिमण्डलमें सूर्यका प्रतिमुहूर्त गतिमान और ७-प्रतिमण्डलमें दृष्टिपथप्राप्तिप्ररूपणा कही जाएगी।] १-मण्डलचार-अर्धमण्डलसंस्थितिसर्वाभ्यन्तरमण्डलमें रहे सूर्योंमेंसे एक सूर्य (भारतसूर्य) जब दक्षिण दिशामें होता है तब दूसरा (ऐरवतसूर्य) सूर्य उत्तर दिशामें होता है। ये दोनों सूर्य विवक्षित मण्डलमें प्रवेश करके उस उस मण्डलको विचरते विचरते, पूर्वापर दोनों सूर्य अर्द्ध अर्द्ध मण्डलचारको करते, जिस जिस दिशाके सूर्यको जिस मण्डलकी जिस दिशाकी अर्द्ध अर्द्ध मण्डलोंकी कोटि पर पहुँचना होता है उस उस दिशागत मण्डलकी कोटिको
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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