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________________ * नरकगतिविषयक द्वितीय भवनद्वार . दूसरे से लेकर नरकावासा के नामों इस प्रकार बताते हैं / पहले का नाम है विलय, २-विलारमा, ३-स्तनित, ४-आघात, ५-घातक, ६-कलि, ७-काल, ८-कर्णि, ९-विद्युत, १०-अशनि, ११-इन्द्राशनि, १२-सर्प, १३-विसर्प, १४-मूञ्छित, १५-प्रमूछित, १६-लोमहर्ष. १७-खरपरुष, १८-अग्नि, १९-वेपिता, ( वेपित=कंपित ), २०-उदग्ध, २१-विदग्ध, २२-उद्वेजनक, २३-विजल (निर्जल, सूखा), २४-विमुख, २५-विच्छवि, २६-व्यधज्ञ (भेदनेवाला, चोट करनेवाला), 27- अवलान, २८-प्रभ्रष्ट, २९-रूष्ट ३०विरूष्ट, 31- नष्ट, ३२-विगत, ३३-विनय, ३४-मंडल, ३५-जिह्व, ३६-ज्वरक, ३७-प्रज्वरक, ३८अप्रतिष्ठित, ३९-खंड, ४०-प्रस्फटित, ४१-पापदंड, ४२-पर्पटकपाचक, ४३-घातक, ४४-स्फुटित, ४५काल, ४६-क्षार, ४७-लोल और 48 लोलपाक्ष / अब उत्तरवर्ती पंक्ति के से लेकर सभी नामों को जान लें / उक्त नामों को मध्य पद लगाइए। उदाहरण के तौर पर-विलयमध्य, विलात्मामध्य इत्यादि / साथ ही इन्हीं नामों में मध्यआवर्त शब्द नाम के अन्त में तथा आदि में जोडा (लगाया) जाता है, परन्तु चार-चार आवास के अंतर पर मध्यविलय इस प्रकार मध्य शब्द आदि में पहले लगाया जाता है। और पश्चिमवर्ती पंक्तियों के लिए उन्हीं नामों के साथ 'आवर्त' पद लगाना। जैसे कि विल्यात, विलात्मावर्त आदि। और मध्य आवर्त आदि जो पद लगाये जाते हैं वे प्रारम्भ में ऊपर बताये अनुसार विलयादि नाम के बाद लगाये जाते हैं लेकिन चार-चार आवास के अन्तर पर तो 'मध्य विलय पहले लगाया ही जाता है। चौथी दक्षिण दिशावर्ती पंक्तियों के लिए उक्त नामों को अवशिष्ट पद लगाइए अर्थात् 'विलयावशिष्ट, विलात्मावशिष्ट' इस प्रकार प्रत्येक नरक प्रस्तर पर प्रयोजित करें / इस आवास के देव अशुभ एवं अपवित्र होने से इनके नाम भी ऐसे ही अमंगलकारी तथा अप्रिय हैं। - उत्पत्ति-वेदना-विचार-ये सभी नरकावास गोल (वृत्त) झरोखे जैसे होते हैं, वहाँ उत्पन्न होकर पुष्ट शरीर वाले ये नारको बड़ी कठिनता से इसी मुँह से ( अर्थात नरकावास के द्वार में से ) बाहर निकलकर नीचे गिर जाते हैं, क्योंकि गवाक्ष ( झरोखे ) के समान होने के कारण भीतर का भाग विस्तीर्ण तो होता है, लेकिन उसका मुँह अति संकीर्ण होता है। अतः कलश में प्रवेश करने वालों को छोटी नाली में से बाहर निकलते समय जैसा कष्ट पडता है वैसा उन्हें भी कष्टदायक लगता है, परन्तु अंत में परमाधामी इन्हें बड़े जोरों के साथ खींचकर जब बहार निकालते हैं / तब वे अति पीडित होकर बाहर निकलते हैं। उनका उत्पत्तिदेश (योनि-जन्मस्थल) हिमालय पर्वत के समान अतिशय शीतल है / इस प्रदेश को छोडकर शेष सारे प्रदेश की जमीन खर के अंगारों के समान अति गर्म और उष्णवेदनामय है, इसी कारण से शीतयोनि में जन्म लेनेवाले सभी नारकों के लिए यह उष्णक्षेत्र अग्नि के समान अधिक कष्टदायक है / अवतरण-अब उस करण की सहायता से प्राप्त समय निकायाश्रयी आवलिकागत और पुप्पावकीर्ण की संख्या को ग्रन्थकार स्वयं ही कहते हैं __ छन्नवइसय तिपन्ना, सत्तसु पुढवीसु आवलीनरया / सेस तिअसीइलक्खा, तिसय सियाला नवइसहसा // 235 // गाथार्थ—पूर्व कथित गाथा में कुछेक करण की सहायता से सातों नरक की कुल
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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