________________ .36. * श्रीबृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . प्राकारव्यवस्था-नरकावासों में उत्पन्न होनेवाले नारक पराधीन एवम् परवश होते हैं जो दुःख भोगने के लिए आये हैं। वहाँ कुछ भी अच्छी वस्तु या लंटनेलायक होता ही नहीं है, जिसके कारण नारकों के लिए प्राकारादि की व्यवस्था संभवित ही नहीं है / अतः वहाँ वह व्यवस्था नहीं है। ____ स्वामित्वभेद-वहाँ वैमानिक त्रिकोण, वृत्त, चौकोन में नरकावासों का मालिकी भेद जैसा कुछ भी नहीं है / साथ ही उन में बाँटने योग्य कुछ भी नहीं मिलता है। उच्च चीजों का मालिक सब कोई हो सकता है परन्तु ऐसे अशुभ एवं नरकावासों की आवलिकाओं में मालिक बनने के लिए कौन तैयार होगा ? अर्थात् कोई भी नहीं। ___उपरोपरि ( सर्वोच्च, सर्वश्रेष्ठ ) स्थान-वैमानिक निकाय की तरह यहाँ भी वृत्त के ऊपर वृत्त, त्रिकोण के ऊपर त्रिकोण तथा चौकोन के ऊपर चौकोन नरकावासा सर्वत्र है ऐसा समग्र प्रतर में क्रमशः सोच लेना। _____ स्पर्शादिक-ये सभी नरकावासा अशुभ, अति दुर्गंधयुक्त स्पर्श करने के साथ ही महाहानि पहुँचानेवाले, '' अरूचि उपजानेवाले, अनेक मुर्दे इत्यादि की अति निन्द्य तथा दुर्गंध से भरे हुए, प्रकाशादि कुछ भी न होने के कारण और स्वयं अप्रकाशित होने से महा घनघोर अंधकारवाले होते हैं। . ___पुष्पावकीर्णाकार (संस्थान )-प्रत्येक पंक्तियों के आंतरों में बिखरे हुए-अलग-अलग फैलाये हुए. : (पुष्पावकीर्ण ) पुष्पवत् आवास रहे हैं। वे सब लोहयुक्त कोठे के आकार में, शराब के पीठ के आकार में, खाना पकाने के तवे के आकार में, थाली, तापसाश्रम, मृदंग (मुरज ) वाद्य, नन्दीमृदंग, सुघोषा घंटा, मर्दल ( मृदंग से मिलता-जुलता एक प्राचीन बाजा ), भाँडपटह ( ढोल, नगाडा, डुग्गी) भेरी- ढक्का (नगाड़ा, ढोल) झल्लरी (हुडुक-एक बाजा) कुस्तुम्बक इत्यादि विभिन्न आकारवाले होते हैं। इन्हें देखते . ही दर्शक के शरीर में कॅप-कँपी आ जाये ऐसे भयंकर होते हैं। ये सभी नरकावास भीतर से गोल और बाहर से त्रिकोण तथा नीचे से क्षुर प्रशस्त्र के (क्षुर छुरा-उस्तुरा) समान दृश्यवाले है। आवलिकाप्रविष्टावासाकार-आवलिकागत नरकावासविमान खास करके मध्य नरकेन्द्र के आवास की चारों दिशा की पंक्तियों में पहले त्रिकोण, बाद में चौकोन फिर वृत्त, इस प्रकार पुनः त्रिकोण, चौकोन इत्यादि क्रमानुसार पंक्ति के अंत तक आये हुए हैं। लेकिन उन त्रिकोणादि आवासों के पीठ का ऊपरि मध्यभाग ग्रहण करके देखा जाये तो उन आवलिका गत नरकावास पुष्पावकीर्ण आकारवत् भीतर से वृत्ताकार और बाहर से चौकोन और नीचे से घास काटने के नुकीले तीक्ष्णहँसिया जैसे दिखाई देते हैं / प्रत्येक प्रतरवर्ती सभी नरकेन्द्रावास गोल (वृत्त) ही होते हैं. लेकिन त्रिकोणादिक होते नहीं हैं। आवलिकागत नरकावासों के नामों की पहचान प्रत्येक नरक में यथासंख्य उपयुक्त कथनानुसार प्रतरों आये हुए हैं। प्रत्येक प्रतर तीन हजार योजन ऊँचा तथा चौड़ाई में असंख्य योजन लम्बा है। प्रत्येक प्रतर के बीच इन्द्रक नरकावास आये हुए हैं, जिनके आस-पास चारों दिशाओं में तथा चारों विदिशाओं में (अंतिम प्रतर वयं विदिशा), इस प्रकार आठ पंक्तियाँ नरकावासों की निकली हैं (जिनके आकारादिक का स्वरूप इसके पूर्व बताया गया है)। रत्नप्रभा पृथ्वी में आये हुए मध्यवर्ती -- सीमन्तेन्द्रक' आवास की चारों ओर प्रवर्तित दिशावर्ती आवासों में प्रथम पूर्व दिशा के नरकावास का नाम सीमन्तकप्रभ, उत्तर में सीमन्तकमध्य, पश्चिम में सीमन्तावर्त तथा दक्खिन में सीमन्तकावशिष्ट हैं। इसके बाद पूर्व दिशा में से शुरू होती पंक्ति में स्थित