________________ छः संघयणका वर्णन ] गाथा 158-160 [337 लिए ही समझे। परन्तु जो लोग अपने-अपने धर्मके आचारसे भी हीन-क्रिया धर्मको सेवते हैं उनके लिए तो अपने-अपने कार्यानुसार ही समझे, जो बात ऊपर कही ही है। [ 558] // देवगतिमें कौन-कौनसे जीव आकर उपजते हैं ? उसका यन्त्र // जातिनाम रस्सीका फन्दा प. ग. मनुष्य तिर्यचका खानेवाला, विषभक्षी, शुभभावसे चारों निकायमें, जल-अग्निमें मरकर व्यन्तर असं. मनुष्य तिर्यंचका प्रवेशकर, भूख-तृषा | में जाते हैं भ. से ईशान तक से दुःखी, गिरिपात संमूर्छिम तिर्यचका करनेवाले म. से व्यन्तर तक चरक-परिव्राजक-भ. से ब्रह्मबालतपस्वी, . | भवनपतिके ____ कल्प यावत् जघ.से व्यन्तरमें उत्कृष्ट रोषी, तपसे | असुरोंमें ग. प. पंचेन्द्रिय तिर्यच सहस्रार अहंकारी, वैरासक्त | शुभभावसे कल्प यावत् ... | उपजते हैं श्रावक-उत्कृष्ट अच्युतान्त तापस-भव. से ज्यो. तक यावत् जघ० सौधर्ममें, जघन्यसे व्यन्तरमें यतिलिंगी मिथ्यादृष्टि-नौ ग्रै० छद्मस्थयति - सर्वार्थसिद्धमें चौदहपूर्वी - जघ० लांतकमें व्यन्तरमें अवतरण-इस प्रकार अध्यवसाय तथा आचाराश्रयी उपपात विधि कहकर संघयण द्वारा उपपात कहनेका होनेसे प्रथम छः संघयणका वर्णन करते हैं। वज्जरिसहनारायं, पढमं बीअं च रिसहनारायं / नारायमद्धनारायं, कीलिया तह य छेवटुं / / 159 / / एए छ संघयणा, रिसहो पट्टो य कीलियावज्जं / उभओ मक्कडबंधो नाराओ होइ विन्नेओ / / 160 / / गाथार्थ-पहला वज्रऋषभनाराच, दूसरा ऋषभनाराच, तीसरा नाराच, चौथा अर्धनाराच, पाँचवाँ कीलिका, छठा छेदस्पृष्ट-छेवढं इस प्रकार छः संघयण है / उनमें वनऋषभनाराचका अर्थ [ गाथामें ही ] करते हुए जणाते हैं कि वन्न-कीलिका (अर्थात् कीलि, मनुष्यके शरीरमें बृ. सं. 43 यावत् जघ०