________________ व्यन्तरनिकायके चिह्न तथा देहवर्णका यन्त्र ] गाथा 40-41 [ 99 व्यन्तरनिकायके चिह्न तथा देहवर्णका यन्त्र देहवर्ण / निकाय नाम / 1. पिशाचनिकाय | 2. भूत , श्याम 3. यक्ष " 4. राक्षस , ध्वजा चिह्न कदंब वृक्ष सुलस वृक्ष वट वृक्ष तापस पात्र अशोक वृक्ष चंपक वृक्ष नाग वृक्ष तुंबर वृक्ष 5. किंनर " कृष्ण श्याम उज्ज्वल श्याम (नील) उज्ज्वल श्याम श्याम 6. किंपुरुष ,, 7. महोरग ,, 8. गान्धर्व ,, // व्यन्तरनिकायान्तर्वर्ति ‘वाण-व्यन्तर' निकायका स्वरूप // अवतरण-अब वाणव्यन्तरके आठ भेद बताते हैं और वे जहां हैं उस स्थानका निरूपण करते हैं-- .. अणपन्नी पणपन्नी, इसिवाई भूयवाइए चेव / कंदी य महाकंदी, कोहंडे चेव पयए य // 40 // इयपढम-जोयणसए, रयणाए अट्ठ वन्तरा अवरे / तेसु इह सोलसिंदा, 'रुयग' अहो दाहिणुत्तरओ / / 41 // गाथार्थ-अणपन्नी, पणपन्नी, ऋषिवादी, भूतवादी, कंदित, महाकंदित, कोहंड और पतंग ये आठ वाणव्यन्तरके भेद हैं / ये आठों वाणव्यन्तरनिकाय रुचकप्रदेशके नीचे, रत्नप्रभा पृथ्वीके पहले १२२सौ योजनमें आये हैं और उनमें दक्षिण-उत्तरभेदके कुल मिलाकर सोलह इन्द्र हैं। // 40-41 // . 122. योगशास्त्रकार महाराज श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य योगशास्त्रमें तथा श्रीमान् जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण महाराज संग्रहणी ग्रन्थमें वाणव्यन्तरोंका स्थान ऊपर छोड़े हुए सौ-सौ योजनमेंसे पुनः उसमें ही ऊपर-नीचे दसदस योजन छोड़कर अवशिष्ट अस्सी योजनोंमें बताते हैं / इस ‘चन्द्रीया संग्रहणी 'का भी यही अभिप्राय है / जब कि प्रज्ञापनाउपाङ्गमें श्री गौतमस्वामी महाराजे किये प्रश्नके उत्तरमें त्रिकालज्ञानी परमात्मा महावीरदेवने ऐसा बताया है कि, प्रथम छोड़े गये ऊपरके हजार योजनमेंसे ही ऊपर-नीचे सौ-सौ योजन छोड़कर अवशिष्ट आठसौ योजनोंमें वाणव्यन्तर हैं / यहाँ पर गीतार्थ पुरुष ऐसा भी समन्वय करते हैं कि व्यन्तरोंको भी सिद्धान्तोंमें वाणव्यन्तर शन्दसे किसी-किसी स्थानमें वर्णित किया है / इस समन्वयसे शास्त्रीय विरोधका परिहार होता है /