________________ देवोंका शरीरप्रमाण यन्त्र और उपपातविरह ] गाथा-१४४ [317 मान भाग जिन जीवोंने उत्तरवैक्रिय देहकी रचना जितने प्रमाणयुक्त करनी शुरू की है, वे जीव अन्तर्मुहूर्तमें ही उसी इष्ट प्रमाणवाले हो जाते है / [ 143 ] // चारों निकायके देवोंका शरीरप्रमाणका यन्त्र // देवजाति नाम भव. उत्कृ. भव० जघ० उत्तरवैक्रिय उत्तर वैक्रिय मान | उ. मान ज. मान भवनपतिका 7 हाथ अंगुलका असंख्यातव 1 लाख यो० अंगुलके संख्यातवें भागकी व्यन्तरका ज्योतिषीका सौधर्म-ईशानमें सनत्कुमार-माहेन्द्रमें ब्रह्म-लांतकमें शुक्र-सहस्रारमें आनत-प्राणतमें आग्ण-अच्युतमें प्रयोजन रूप नवौवेयकमें नहीं पाँच अनुत्तरमें ..... -इति विबुधानां तृतीयमवगाहना द्वारं समाप्तम् // Peacoccacciocavacacocacoe 9 // देवोंका चौथा 'उपपात-विरह' कालद्वार // अवतरण-तीसरे द्वारको समाप्त करके अब ‘उववायचवणविरहं ' उस पदवाला चतुर्थ द्वार शुरू करते है, जिसे चार गाथाओंसे सम्पूर्ण करेंगे। सामन्नेणं चउविह-सुरेसु बारस मुहुत्त उक्कोसो / उववायविरहकालो, अह भवणाईसु पत्तेयं / / 144 // गाथार्थ-विशेषार्थवत्। // 144 // विशेषार्थ-अब चौथा द्वार ' उपपात विरह ' अर्थात् क्या ? उपपातविरह-उत्पन्न होनेका वियोगकाल वह, अर्थात् देवगतिकी कोई भी निकायमें एक अथवा अनेक देव उत्पन्न होनेके बाद उस निकायमें अन्य कोई देव उत्पन्न न हो तो कहाँ तक उत्पन्न न हो ? उस कालका अंतरप्रमाण कहना उसे उपपातविरह कहते है /