________________ ऋजु और वक्रागतिका स्वरूप ] गाथा-१८८ [373 उर्ध्व-समश्रेणिपर ही होता है। यह अटल नियम है, इसीसे यह रहस्य भी स्पष्ट होता है किं-जीवकी मूलगति तो ऋजु (सरल) ही है, लेकिन अपने कर्मवशवर्ती होकर उसे वक्राका अनुभव करना पड़ता है। वकागति किसे मिलती है ?-सिर्फ संसारमें जन्म धारण करनेवाले जीवोंमें ही वक्रागति मिलती है जब कि मुक्तिगामियोंमें यह नहीं मिलती है। ___ इसमें भी चार प्रकारकी इन विग्रहगतियोंमेंसे एकविग्रहा और द्विविग्रहा तो सिर्फ त्रस जीवों मरकर पुनः त्रस होनेवाले हैं उनके लिए ही होती हैं क्योंकि त्रसनाड़ीमें मरकर त्रसनाड़ीमें ही उत्पन्न होनेवाले जीवोंमें अधिक वक्राका संभव रहता ही नहीं है। जो जीव स्थावर है उनमें (ऋजु सहितकी ) पाँचों गतियाँ होती हैं, क्योंकि उन्हें सनाड़ीके बाहर भी जनम धारण करना पड़ता है। एक वक्रामें 1, दोमें 2, तीनमें 3, चारमें 4 (घुमाव ) मोड़ आते हैं। यहाँ शंका होती है कि इतने सारे वक्राकी जरूरत पड़ती है क्या ? तो इसका उत्तर है, हाँ / वस्तुस्थिति ऐसी है कि जीव तथा पुद्गलकी गति आकाशप्रदेशकी श्रेणिपंक्ति अनुसार ही होती है। इसकी स्वाभाविक गति ही छः दिशाओंमेंसे किसी भी दिशाकी समानान्तर दिशामें ही होती है तथा इसका स्वाभाविकगमन अनुश्रेणिपूर्वक ही होता है, लेकिन विश्रेणिपूर्वक कभी भी होता ही नहीं है। अतः जब उसे असमानान्तर अथवा विषमणिपर पहुँचना होता है तब अवश्य ही अनेक घुमाव परसे गुजरना पड़ता है जिसमें अपने पूर्वकृत कर्म भी कारणरूप बनते हैं। और इन घुमावोंके समय अनाहारकपनकी स्थिति होती है। अनाहारकपन कब-कब होता है ? __इस प्रकार जब विग्रहगतिको प्राप्त हुए जीवोंमें पाँच समयकी चतुर्विग्रहा होती है तब चार मोड़ आते होनेसे चार समय (व्यवहारनयसे 3) अनाहारीपन होता है, तो ऐसी ही दूसरी विग्रहागतियोंमें 3-2-1 (व्यवहारनयसे 2-1-0) अनुक्रमसे अनाहारीपन मिलता है। ऋजुगतिसे उत्पन्न होनेवालोंको अनाहारक बननेका अवसर मिलता ही नहीं है। उनका विशेष स्वरूप 329 से 331 तककी गाथाके विवरणसे ही समझ लेना। - केवलज्ञानी जब आठ समयके समुद्घात करते हैं तब (केवल कार्मणकाययोगमें वर्तित) उनका 3,.4, ५-ये तीन समय अनाहारक ही होता है।