________________ महाविदेहक्षेत्र और उसकी विजयोंका नाम ] गाथा 86-90 [ 203 वर्तित है / जबकि हमारे यहाँ तो उस उस सामग्रीका कालाश्रयी विशेष परावर्तन हुआ करता है; अतः हमारे यहाँ मोक्षमार्ग सदा ही खुला नहीं रहता / यह क्षेत्र चौथे आरेके समान होनेसे वहाँ 500 धनुष प्रमाण ऊँचे और पूर्व करोड वर्षके आयुष्यवाले जीव होते हैं / इत्यादि स्वरूप चौथे आरेके अनुसार सोचें / इस महाविदेह क्षेत्रकी 32 विजयोंके नाम इस तरह हैं बत्तीस विजयोंके नाम उत्तरदिशावर्ती | दक्षिणदिशावर्ती / दक्षिणदिशावर्ती उत्तरदिशावर्ती 1. कच्छ . वत्स | 17. पद्म 25. वप्र 2. सुकच्छ / 10. सुवत्स 18. सुपद्म 26. सुवप्र 3. महाकच्छ 11. महावत्स 19. महापद्म 27. महावन 4. कच्छावती .. 12. वत्सावती 20. पद्मावती 28. वप्रावती 5. आवर्त 13. रम्य 21. शंख 29. वल्गु 6. मंगलावर्त 14. रम्यक् / 22. कुमुद 30. सुवल्गु 7. पुष्कलावर्त 15. रमणिक 23. नलिन 31. गंधिल 8. पुष्कलावती | 16. मंगलावती | 24. नलिनावती 32. गंधिलावती - इनमें 'पुष्कलावती' विजयमें ‘सीमन्धरस्वामीजी,' 'वत्सा में 'श्री युगमन्धरस्वामीजी,' 'नलिनावती 'में 'श्री बाहुस्वाभीजी' और चौथी ‘वप्रावती में श्री सुबाहु स्वामीजी इस तरह चार तीर्थकर वर्तमानमें अपने उपदेशके द्वारा अनेक जीवोंको कर्मसत्तासे निर्मुक्त कराके मोक्षमहलमें भेजते हुए, महाविदेह क्षेत्रमें विचरते हैं / ये तीर्थंकर विहरमानजिन रूपमें परिचित हैं और उनकी महिमा प्रसिद्ध है / अब तो भरतक्षेत्रमें प्रभुके कल्याणकारी दर्शनका. साक्षात् अभाव है, जिससे विहरमानजिनोंको भावपूर्वक नमस्कार करके आत्माका साफल्य माना जाता है। इस तरह महाविदेहक्षेत्र विषयक संक्षिप्त स्वरूप कहा। इस क्षेत्रके सम्पूर्ण होने पर तुरन्त ही सर्व प्रकारसे निषधपर्वतके सदृश, सिर्फ वर्णसे नीले-वैडूर्यरत्नका 'नीलवन्तपर्वत' आया हुआ है / इस पर्वतोपरि 4000 योजन लम्बा, 2000 योजन विस्तीर्ण और 'कीर्ति' देवीके निवासवाला 'केसरी'नामका. द्रह आया है। यह पर्वत मण्डलप्रकरणके वर्णन प्रसंग पर खास उपयोगी होनेवाला है। (जो पाठक प्रसंग पाकर स्वयं समझ सकेंगे / ) .. इस पर्वतसे आगे बढ़े कि तुरन्त ही हरिवर्ष क्षेत्रके समान व्यवस्थावाला 'रम्यक्