________________ * 266 . .श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * 11. दृष्टि, 12. दर्शन, 13. ज्ञान, 14. योग, 15. उपयोग, 16. उपपात संख्या, 17. च्यवन संख्या, 18. स्थिति आयुष्यमर्यादा, 19. पर्याप्ति, 20. किमाहार, 21. संज्ञी, 22. गति, 23. आगति, 24. वेद / इस तरह 24 द्वारकी यह संक्षिप्त संग्रहणी है / // 344-345 // विशेषार्थ-ये दोनों गाथाएँ अमुक आगमग्रन्थोंमें तथा उनके अंगभूत ग्रन्थों में प्रसंगोपात देखने मिलती हैं। हमारे यहाँ वर्तमानमें प्रारंभके पाठयक्रममें पंच प्रतिक्रमणके बाद जीवविचार, नवतत्त्व और दंडक आदि प्रकरणोंका जो अभ्यास करवाया जाता है, इनमें दंडक प्रकरणमें ये ही गाथाएँ (उद्घत् करके ) दी गयी हैं। पन्नवेणी सूत्र-टीका तथा लोकप्रकाश आदि ग्रन्थोंमें संसारी जीवोंका विस्तृत * स्वरूप 36-37 द्वारों द्वारा वर्णित किया है। जबकि जिनके नाम लेने लायक (योग्य) हैं ऐसे मूलगाथाके 24 द्वारोंका विस्तृत वर्णन प्रत्येक द्वार पर संग्रहणीके टीकाकारोंने यहाँ किया है। इसके तथा अन्य ग्रन्थोंके आधार पर प्रस्तुत द्वारोंकी जानकारी अब यहाँ दी जाती है। इसी दृश्य-अदृश्य विश्वमें सूक्ष्म या स्थूल, दृश्य या अदृश्य प्रकारके एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके अनंत जीव रहते हैं। इन्हीं जीवोंकी जीवनस्थिति और जीवन विकास कैसा होता है ! यह समझनेके लिए संलग्न अनेकानेक विषयोंका ज्ञान जरूरी होता है / इस संपूर्ण ज्ञानके अभाव के कारण हम सारी बातोंको जाननेके लिए असमर्थ है / इस लिए शास्त्रकारोंने ग्राह्य एवं जरूरी बातोंका जो संग्रह किया है, उसे यहाँ समझाया जाता है। इसमें सबसे पहले 'शरीरद्वार' समझाया जायेगा। क्योंकि यह मुख्य चीज है। विना शरीर कोई संसारी जीव हो सकता ही नहीं है। सारे विश्वमें ऐसे शरीरधारी जीव अनंत हैं। ये सभी जीव पाँच प्रकारके शरीरोंमें बँटे हुए (विभाजित) हैं। और आठ प्रकारकी ग्राह्य पुद्गल वर्गणामेंसे पाँच प्रकारकी विभिन्न वर्गणा द्वारा इन्हीं पाँचों विभिन्न शरीरोंका निर्माण होता है। 1. सरीर [शरीर] द्वार-शरीर' शब्दकी व्युत्पत्ति सोचने पर लगता है-शीर्यतेविशीर्यते तच्छशीरं / अर्थात् शीर्ण-विशीर्ण अथवा विखराव अथवा विनाशयुक्त स्वभाववाला अथवा पूरण-गलन स्वभाववाला जो होता है, उसे शरीर कहा जाता है। 571. पन्नवणा ठाणाई बहुवत्तव्वं छिई विसेसाय। [पन्नवणासूत्र गा० 4 से . ] 572. भेदास्थानानि पर्याप्तिः / / (सर्ग 3, इलो. 2 से 6]