________________ * 206 . . .श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . लगते हैं, आघात-प्रत्याघात लगते हैं, तब वह आयुष्य पुद्गलोंको अवश्य अधिक खपा देता है। और अति जोरदार अकस्मात् या उपक्रम लगे तो देखते ही देखते आयुष्यके पुद्गलोंको अकल्पनीय ऐसे तीव्रवेगसे-कर्मकी उदीरणासे उदयमें लाकर जीव भोग लेता है, अर्थात् समाप्त कर देता है / जीवन जीनेका यह अनिवार्य उपादान-साधन खलास होनेसे फिर जीव किस तरह जी सके ? प्रश्न-किसी भी प्रकारका उपक्रम-उपद्रव हो. तब अगर तत्काल उचित उपाय किए जाएँ तो बहुत बच जाते हैं, तो इसमें क्या समझना ! उत्तर-इस प्रश्नके खुलासे के लिए इसी पुस्तककी गाथा 336 का अर्थ देखिए। जो जीव सोपक्रमी अनपवर्तनीय आयुष्य बांधकर आया हो उसे चाहे उतने उपक्रम भले लगे लेकिन उसका आयुष्य खत्म नहीं होता। उपक्रमके उपायोंके आयोजनसे अच्छा हो जाए और ज्यादा जीए इससे आयुष्य बढ गया ऐसा न समझना। ये सारे उपक्रम अपवर्तनीय सोपक्रम प्रकारके आयुष्यका ही अपवर्तन-हास करते हैं। लेकिन अनपवर्तनीय निरूपक्रम प्रकारके बंधे आयुष्यका कभी अपवर्तन नहीं कर सकते / 335 वीं गाथामें चरमशरीरी आदि जिन जिन जीवोंको निरूपक्रमी (उपक्रमका असर हो ऐसे) आयुष्यवाले जनाये हैं। वहाँ समझमें थोडा विवेक रखनेका कि इन जीवों को कभी उपक्रम लगते, पीडा भी देते, पीडासे मृत्यु भी पाते दीखते / यहाँ जीवके सामने उपक्रमकी उपस्थिति जरूर है लेकिन अगाऊ बताया है वैसे, उसं आयुष्यका अपवर्तन अर्थात् दीर्घायुषीको अल्पायुषी नहीं कर सकता। मृत्यु उपजावे वसा उपक्रम-घटना बने तब इन जीवोंके लिए ऐसा ही समझना कि सहजपनसे भोगे जाते आयुष्यकी पूर्णाहुति आ पहुँची हो तब ही उसे मृत्यु योग्य उपक्रम लगता है, कुदरती रीतसे ही परस्पर ऐसा योग बन पाए / हाँ, उपक्रम निमित्त रूपमें जरूर दीखे और मानो कि इस उपक्रमसे ही मर गया ऐसा दीखे भी सही, परंतु हकीकतमें ऊपर कहा वैसा समझना। आयुष्यकी घटनाके साथ संबंध रखनेवाली जो बाबतें अगाऊ कह गए उनका पुनः तात्पर्य यहाँ दिया है। * 1. बंधकाल-परभवका आयुष्य बांधनेका समय भोगे जाते आयुष्यकालमें कच होता है उसका निर्णय वह बंधकाल / देवों-नारकों असंख्याता वर्षवाले मनुष्यों, तिर्यचोंके