________________ सूर्यमण्डलकी संख्या और उसकी व्यवस्था ] गाथा 86-90 [ 217 तो जम्बूद्वीपमें 180 योजन क्षेत्र कहा, तो यह किस तरह बने ? इसके लिए यहाँ पर प्रथम तो यह समझना उचित है कि ६५वा मण्डल पूर्ण किस स्थानमें होता है ? तो जम्बूद्वीपकी चार योजन चौडी ऐसी जो पर्यन्त जगती, वह जब 11 भाग जितनी शेष रहे तब पूर्ण हो और तब तक तो 179 यो० र भाग क्षेत्र होता है / अब ६५वाँ मण्डल पूर्ण होने पर ६६वें मण्डलमें जम्बूद्वीपकी जगतीके ऊपर प्रारम्भ किया और उस जगती पर 53 भाग जितना चारक्षेत्र घूमकर ( यहाँ जम्बूद्वीपकी जगती पूर्ण होकर) जम्बूद्वीपकी जगतीसे 1 यो० 6 भाग जितनी दूर लवणसमुद्र में जाए तब वहाँ 66 मण्डल पूर्ण हुए कहलाते / (६६वें मण्डलका जम्बूद्वीपके जगतीगत 52 भागका क्षेत्र और लवणसमुद्रगत 1 यो० / भागका क्षेत्र मिलाने पर ६५वें मण्डलसे लेकर 663 मण्डलके बिचका 2 योजन अन्तरप्रमाण भी मिल जाएगा / ) अब पहले 65 मण्डलोंका जम्बूद्वीपगत होता जो 179 यो० हा भाग प्रमाण चारक्षेत्र उसमें ६६वें मण्डलसे रुकता जम्बूद्वीप (जगती) गत जो 53 २२/भागका मण्डलक्षेत्र जोडनेसे 180 योजन पूर्ण होते हैं। इस तरह शेष 119 सूर्यमण्डल लवणसमुद्रगत 330 योजन और 48 भाग अंश प्रमाण क्षेत्र रोककर रहे हैं / जम्बूद्वीपगत और लवणसमुद्रवर्ती मण्डलोंकी संख्याका और उन दोनोंवर्ती क्षेत्रका जोड करनेसे 184 मण्डलोंका 510 यो० 48 भाग प्रमाण क्षेत्र बराबर आ जाता है। इस चालू ग्रन्थकारके अभिप्रायसे जम्बूद्वीपवर्ती २२४भारत सूर्यके जो 65 मण्डल उनमेंसे 62 २३°मण्डल तो मेरुकी एक करवट-बाजू पर निषधपर्वतके ऊपर पड़ता है और ____228. हरएक द्वीप-समुद्रवर्ती आए जगती-किलोका क्षेत्रप्रमाण उस-उस द्वीप-समुद्रका जो जो विस्तार-प्रमाण हो उसके अन्तर्गत लेनेका होनेसे यहाँ भी 180 योजनमें क्षेत्रप्रमाण जंबूजगतीक्षेत्रके साथ समझकर कहा है / अतः ही जम्बूद्वीपमें चार योजनका जो जगती प्रमाण है उसे हरिवर्ष तथा रम्यक्क्षेत्रकी लम्बाईमें साथमें गिना है। ___ [ देखिए क्षत्रस० गा० 13 ] 229. जो सूर्य सर्वाभ्यन्तर-द्वितीयमंडलमें दक्षिणार्धभागमें रहा हुआ भरतक्षेत्रमें उदित होकर नूतन सूर्यसंवत्सरका प्रारंभ करे वह 'भारतसूर्य' और उसी समय जो सूर्य सर्वाभ्यन्तरके द्वितीयमंडलके उत्तरार्द्ध भागमें रहकर, ऐरवतादि क्षेत्रोंमें उदित होकर (प्रकाश करता हुआ ) वहाँ वर्षारम्भ करनेवाला जो सूर्य वह 'ऐरवतसूर्य' ऐसा समझना / यह कथन औपचारिक समझना / 230. यहाँ यह समझनेका है कि दोनों संग्रहणी की मूल गाथाओंमें तीन अथवा दो मंडलोंके लिए 'बाहा' ऐसा शब्द प्रयोग किया है, जब कि उस ग्रंथकी टीकामें उस बाहा शब्दके स्पष्टार्थके रूपमें 'द्वे द्वे ब. सं. 28.