________________ देव सम्बन्धी संक्षिप्त समझ ] गाथा-२०० [ 393 वैक्रिय शरीरी होनेसे (निरुपक्रमायुषी) उनकी मृत्यु नहीं होती, किन्तु पीड़ाका दुःखद अनुभव तो अवश्य होता ही है / 6. एक इन्द्र च्यवे-मरे और उसके स्थान पर तुरत ही दूसरा इन्द्र जो उत्पन्न न हो तो इन्द्र समान समृद्ध समझेजानेवाले सामानिक जातिके देव वहाँका शासन व्यवस्थित रूपसे चलाते हैं। ___5. सम्यगृहष्टि देव उत्तमकुलमें जन्म लेते हैं, और मिथ्यादृष्टि प्रतिकूल प्रवृत्तिके कारण नीच कुलमें जन्म लेते हैं। 8. वर्तमानमें देव-देवियोंकी जो आराधना होती है, उनमेंसे अधिकांश भवनपति, व्यन्तरनिकायके होते हैं / यक्ष-यक्षिणियाँ, दिक्कुमारियाँ, विद्यादेवियाँ, ही-श्री आदि षट् देवियाँ, सरस्वती, घन्टाकर्ण-क्षेत्रपाल आदि सभी इसी निकायके हैं। 9. व्यन्तर और भवनपतिके इन्द्रादिक देव-देवियों के स्वामित्वकी नगरियाँ, आनन्दप्रमोदके स्थल मनुष्यक्षेत्रके बाहिर द्वीपोंमें हैं / यह एक विशेष घटना है। 10, वर्तमान दृश्य पृथ्वीके नीचे एक दूसरी अनोखी सृष्टि स्थित है, जहाँ पर भवनपति और व्यन्तर देवों आदिके स्थान हैं। 11. देवशय्याके ऊपर जो देवदूष्य चादर और उसके ऊपर तथा नीचे रहे हुए पुद्गलोंको वैक्रियरूपमें परिणमित करनेको देव सम्बन्धी उपपात जन्म कहा जाता है। 12. इन्द्र, त्रायस्त्रिंशक, लोकपाल, अग्रमहिषियाँ पूर्वभवमें कौन थे, कैसे सुकृतकार्योंसे इन स्थानोंको प्राप्त किया, उनकी उत्पत्ति, विकुर्वरूप शक्तियाँ, उनकी पर्षदा और सभाका विद वर्णन, विषयसुखोंकी मादकता और भोगनेकी व्यवस्था, उनके विमानों और प्रासादोंकी रचना, उनके नाम, विमानोंका बाह्याभ्यन्तर स्वरूप, कल्याणकोंके प्रसंग पर कैसे आते हैं ? तथा इसी प्रकार उनकी आन्तरिक व्यवस्था और मर्यादाएँ इत्यादि स्वरूप अन्य ग्रन्थोंसे जान लेना चाहिये। समाप्तं षष्ठं परिशिष्टम् / बृ, सं. 50